आज का शब्द: अविचल और मैथिलीशरण गुप्त की कविता- चांडाल
'हिंदी हैं हम' शब्द शृंखला में आज का शब्द है- अविचल, जिसका अर्थ है- अचल, स्थिर, अटल। प्रस्तुत है मैथिलीशरण गुप्त की कविता- चांडाल हुआ किसी नृप के घर लाल, तन पर किंतु रीछ-से बाल! बोले तब दैवज्ञ विशाल— “झाड़े कहीं इसे चांडाल!” सुन कर सभी हो गए सन्न; पर क्या करते नहीं विपन्न लेकर उसे नदी के पार, पहुँचा सचिव श्वपच के द्वार। परम स्वच्छ था उसका गेह; अविचल मन था, निर्मल देह। सुस्थिर मुद्रा में आसीन, वह था प्रभु-चिंतन में लीन। किया नहीं उसने दृकपात, कर न सका मंत्री भी बात। सोचा किया दृष्टि निज डाल— “इस जन का क्या है चांडाल पावे आसा द्विज भी ख्याति, सचमुच आत्मा की क्या जाति अपने जल से, ऐसा डोम, जला सकेगा क्या ये रोम” तब तक हो निवृत्त मातंग, बोला बड़े विनय के संग— “प्रभु, यह कैसा अचरज आज पड़ी कहाँ यह पद-रज आज समदर्शी हैं घन, रवि, सोम, फिर भी यह किंकर है डोम।” कहा सचिव ने तब सस्नेह— कि “तुम महत्तर निस्संदेह। हो शरीर का कोई वंश, जीव सभी ईश्वर के अंश। मुझे श्वपच ही से है काम, आया व्यर्थ तुम्हारे धाम।” यह कह सचिव चला अन्यत्र, आतप रोक रहा था छत्र। पड़ी पुन: सरिता की रेत, मानों रत्न-कणों का खेत।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Dec 28, 2024, 17:42 IST
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