Ahmad Faraz Poetry: जो हिरन को बाँध के ले गया वो सुबुकतगीं कोई और है

वो तफ़ावुतें हैं मिरे ख़ुदा कि ये तू नहीं कोई और है कि तू आसमान पे हो तो हो ये सर-ए-ज़मीं कोई और है वो जो रास्ते थे वफ़ा के थे ये जो मंज़िलें हैं सज़ा की हैं मिरा हम-सफ़र कोई और था मिरा हमनशीं कोई और है मिरे जिस्म-ओ-जाँ में तिरे सिवा नहीं और कोई भी दूसरा मुझे फिर भी लगता है इस तरह कि कहीं कहीं कोई और है मैं असीर अपने ग़ज़ाल का मैं फ़क़ीर दश्त-ए-विसाल का जो हिरन को बाँध के ले गया वो सुबुकतगीं कोई और है मैं 'अजब मुसाफ़िर-ए-बे-अमाँ कि जहाँ जहाँ भी गया वहाँ मुझे ये लगा मिरा ख़ाक-दाँ ये ज़मीं नहीं कोई और है रहे बे-ख़बर मिरे यार तक कभी इस पे शक कभी उस पे शक मिरे जी को जिस की रही ललक वो क़मर-जबीं कोई और है ये जो चार दिन के नदीम हैं इन्हें क्या 'फ़राज़' कोई कहे वो मोहब्बतें वो शिकायतें हमें जिस से थीं कोई और है हमारे यूट्यूब चैनल कोSubscribeकरें।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Nov 06, 2025, 18:41 IST
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