वायु प्रदूषण: यह केवल दिल्ली की समस्या नहीं, इस कारण सुर्खियों में रहती है राजधानी

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली अपनी जहरीली हवा की वजह से सुर्खियों में है। वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) एक जानी-पहचानी स्थिति है, जो बताता है कि हवा कितनी प्रदूषित है और सांस लेने के कुछ घंटों या दिनों में आपकी सेहत पर क्या असर पड़ सकता है, जो अभी सीवियर-प्लस रेंज में है। यह हर साल होने वाला एक तमाशा है, जिसे दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहने और काम करने वाले कुछ लोग खुशी-खुशी स्वीकार करते हैं, जबकि कुछ इसका विरोध करते हैं। लेकिन इस जहरीली हवा को लेकर चल रही बहस में भी हम कई जरूरी बातों को नजरअंदाज कर रहे हैं। सबसे पहले, प्रदूषित हवा केवल दिल्ली की नहीं, पूरे देश की समस्या है। सिर्फ देश की राजधानी होने के कारण नहीं, बल्कि दूसरे कई शहरों के मुकाबले ज्यादा एयर मॉनिटरिंग स्टेशन होने के कारण दिल्ली का एक्यूआई सुर्खियों में रहता है। दिसंबर, 2022 में संसद में एक सवाल के जवाब में सरकार ने बताया कि दो करोड़ की आबादी वाली दिल्ली में 40 एयर-क्वालिटी मॉनिटर थे। इसकी तुलना पूरे महाराष्ट्र (आबादी 12.6 करोड़) से करें, जहां ऐसे 41 स्टेशन थे। बिहार (12.7 करोड़ लोग) में 35 थे। देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में दिल्ली से कम मॉनिटर थे, जबकि यहां की आबादी दिल्ली से आठ गुना अधिक है और कानपुर, लखनऊ और वाराणसी जैसे शहर अक्सर दुनिया की सबसे ज्यादा प्रदूषित रैंकिंग में दिल्ली से आगे रहते हैं। पिछले हफ्ते बुलंदशहर का एक्यूआई 500 से अधिक हो गया, लेकिन यह बात राष्ट्रीय सुर्खियों में नहीं आई। सबसे बड़ी बात यह है कि देश के कई हिस्सों में हवा की गुणवत्ता की स्थिति के बारे में आंकड़ों की भी कमी है। इसके अलावा, प्रदूषित हवा पर चर्चा के दौरान अक्सर मजदूर वर्ग की चिंताओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है, जो असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। जब स्कूल बंद हो जाते हैं या यह सलाह दी जाती है कि बच्चे अपना अधिकतर समय घर के अंदर बिताएं, तो क्या इस बारे में सोचा जाता है कि घरेलू सहायकों या निर्माण श्रमिकों के बच्चों का क्या होता है, जिनके माता-पिता के पास उन्हें रखने के लिए कोई जगह नहीं होती और जो बिना एयर प्यूरीफायर वाले एक कमरे वाले घरों में बंद रहते हैं इन बच्चों के लिए सरकार क्या पहल कर रही है दुख की बात यह है कि सोशल मीडिया पर इतनी नाराजगी के बावजूद, भारत के राजनीतिक वर्ग ने कभी भी स्वास्थ्य, पर्यावरण या साफ हवा के लिए बराबरी की बात को नहीं माना है। हर बार कुछ सीएनजी बसें चलाने, ऑड-ईवन स्कीम, व ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान लागू किए जाते हैं, जो हवा बदलते ही खत्म हो जाते हैं। तो आइए, हम उसी भाषा में बात करते हैं, जिसमें संभावना हो सकती है, यानी आर्थिक और राजनीतिक तर्क। प्रदूषित हवा के कारण हमारे बच्चे सिर्फ अस्थमा और निमोनिया का ही शिकार नहीं हो रहे हैं, बल्कि हम सिस्टमैटिक तरीके से यह सुनिश्चित करते हैं कि लगातार जहरीली हवा में सांस लेने वाले लाखों भारतीय बच्चों के मस्तिष्क का विकास रुक सकता है। इसका विज्ञान स्पष्ट है। फाइन पार्टिकुलेट मैटर (पीएम2.5) भ्रूण और छोटे बच्चों के नाजुक ब्लड-ब्रेन बैरियर को पार कर जाता है, जिससे ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस और न्यूरोइन्फ्लेमेशन होता है और कोशिकाएं हमेशा के लिए खत्म हो जाती हैं। चिल्ड्रेंस एन्वायर्नमेंटल हेल्थ कोलैबोरेटिव, एक बहुपक्षीय पहल है, जिसे यूनिसेफ ने यूनाइटेड नेशंस एन्वायर्नमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) और विश्व बैंक के साथ भागीदारी में शुरू किया है और जिसमें कई विश्वविद्यालय भी भागीदार हैं, यह चेतावनी देता है कि बच्चे वायु प्रदूषण के प्रति बहुत ज्यादा संवेदनशील होते हैं, और यह नुकसान जन्म से पहले ही शुरू हो जाता है। गर्भावस्था के दौरान मां के वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से बच्चे के विकास पर असर पड़ सकता है, बाल मृत्यु दर बढ़ सकती है और समय से पहले जन्म, जन्म के समय कम वजन और जिंदगी भर विकास से जुड़ी दिक्कतों का जोखिम बढ़ सकता है। जन्म के बाद, बच्चे बड़ों की तुलना में ज्यादा प्रदूषित हवा अंदर लेते हैं, क्योंकि वे तेजी से सांस लेते हैं, ज्यादा समय बाहर बिताते हैं, और धूल व गाड़ियों के धुएं जैसी चीजों के ज्यादा करीब होते हैं। ऐसा क्यों होता है ऐसा इसलिए है, क्योंकि बच्चों के फेफड़े, दिमाग और प्रतिरक्षा प्रणाली अब भी विकसित हो रहे होते हैं; थोड़ी-सी भी परेशानी से ज्यादा नुकसान होता है-छोटे एयरवेज ब्लॉक हो जाते हैं, वृद्धि रुक जाती है, और विकास में रुकावट आती है। समय के साथ, वायु प्रदूषण से अस्थमा, कैंसर, फेफड़ों के काम करने में दिक्कत और सोचने-समझने की क्षमता पर असर पड़ता है, जिससे बच्चों की सीखने, खेलने और आगे बढ़ने की क्षमता कम हो जाती है। इनमें से कई असर जिंदगी में बाद में दिखते हैं, और कुछ तो जिंदगी भर रहते हैं। चूंकि बच्चों के ब्लड-ब्रेन बैरियर अब भी बन रहे होते हैं, इसलिए वायु प्रदूषण तंत्रिका तंत्र के विकास में रुकावट डाल सकता है, खासकर जीवन के पहले तीन वर्षों में। भारतीय वैज्ञानिक भी खतरे की घंटी बजा रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी की दामिनी सिंह, इंस्टीट्यूट ऑफ इकनॉमिक ग्रोथ की इंद्राणी गुप्ता और आईआईटी, दिल्ली की साग्निक डे के 2022 के एक अध्ययन में, सैटेलाइट पीएम 2.5 डाटा को इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे के दो चरणों के साथ मिलाकर, भारत में 8-11 साल के बच्चों के संज्ञानात्मक और शैक्षणिक प्रदर्शन पर बाहरी हवा के प्रदूषण के असर का एक अनुमान प्रस्तुत किया गया। शोधकर्ताओं ने पाया कि जो बच्चे परीक्षा से पहले पूरे साल गंदी हवा (पीएम 2.5 के ज्यादा स्तर) में सांस लेते थे, उन्होंने स्कूल टेस्ट में बहुत खराब प्रदर्शन किया। सालाना औसत पीएम 2.5 में हर छोटी-सी बढ़ोतरी से (हवा के हर क्यूबिक मीटर में सिर्फ एक एक्स्ट्रा माइक्रोग्राम) बच्चों के गणित के अंक 100 में से 10 से 16 अंक, जबकि उनके पढ़ने के अंक 100 में से सात से नौ अंक तक घट गए। उनका समग्र मस्तिष्क प्रदर्शन का स्कोर भी कम हुआ। आसान शब्दों में कहें, तो बच्चा जितनी ज्यादा देर तक गंदी हवा में सांस लेता है, उसका दिमाग सीखने और सोचने में उतना ही कमजोर होता है। इसका मतलब यह है कि भारत के वायु प्रदूषण की असली कीमत उससे कहीं ज्यादा है, जितना हम आमतौर पर मानते हैं। अब सोचिए कि 2047 तक विकसित भारत बनाने की हमारी उम्मीदों के लिए इसका क्या मतलब है! [email protected]

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Nov 27, 2025, 07:02 IST
पूरी ख़बर पढ़ें »




वायु प्रदूषण: यह केवल दिल्ली की समस्या नहीं, इस कारण सुर्खियों में रहती है राजधानी #Opinion #AirPollution #DelhiProblem #DelhiAirPollution #Aqi #वायुप्रदूषण #दिल्लीप्रदूषण #दिल्लीवायुप्रदूषण #वायुगुणवत्तासूचकांक #SubahSamachar