अर्पण कुमार की कविता- खोटे सिक्कों की तरह हम फेंक डालते हैं कई इंसानों को

खोटे सिक्कों की तरह हम फेंक डालते हैं कई इंसानों को अपनी चेतना-दिनचर्या के घूरे पर हम खोते हैं लोगों को उनके ज़िंदा रहते हुए जब लहलहाती नहीं संवाद की हरीतिमा वे मर जाते हैं एक दिन उनसे बातचीत के रस अब किसी कलश से कभी नहीं छलकनेवाले अब नहीं खिलनेवाले उनके कहकहों के पुष्प बाग़ में कहाँ बचती है कोई गुंजाइश ज़र्द पत्तों के लिए बुहार कर एक जगह कूड़े की गाड़ियों में या आग के हवाले कर दिए जाते हैं वे निष्प्राण रिश्ते की गंध निष्प्राण देह की गंध से ज़्यादा असहनीय होती है मगर, हम भूलते जा रहे हैं अपनी घ्राण-क्षमता हम भूलते जा रहे हैं समरसता पगुराते हुए अपने-अपने चतुर्भुजों में हम जानते हैं यह मगर हम खोते जा रहे हैं किसी खोते की तरह अपने इस जानने को भी। हमारे यूट्यूब चैनल कोSubscribeकरें।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Nov 24, 2025, 19:23 IST
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