शिक्षा : स्वीडन में किताबों की वापसी, लेकिन सरकार को फैसला बदलने में लग गये 15 साल
इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में भारत में भारी संख्या में कंप्यूटर का प्रवेश हुआ था। हमारी पीढ़ी के लोग जिन्हें जीवन भर हाथ से लिखने की आदत थी, उन्हें कंप्यूटर डराता था। लेकिन धीरे-धीरे समझ में आया कि यह उपयोगी भी बहुत है। इसी दौर में कहा जाने लगा कि कागज का प्रयोग कम से कम करें, क्योंकि जीवन के तमाम कामों से कागज जितनी दूर होगा, उसका उपयोग कम होगा, उतने ही कम पेड़ कटेंगे। डेस्कटॉप के बाद जब लैपटॉप आया, टेबलेट आया, मोबाइल पर कंप्यूटर से जुड़ी सारी सुविधाएं मिलीं, तो इन्हें बाहर लाने-ले जाने में भी कोई दिक्कत नहीं रही। दफ्तरों, दुकानों, बैंकों, अस्पतालों, रेल, बस, हवाई जहाज की टिकट बुकिंग, यानी कि जीवन के हर क्षेत्र में यह आ पहुंचा। स्कूलों में भी सोचा जाने लगा कि किस तरह से बच्चों को अधिक से अधिक संख्या में कंप्यूटर दक्ष किया जाए। कहा जाने लगा कि जल्द ही बच्चे किताबों के मुकाबले कंप्यूटर का प्रयोग अधिक से अधिक करने लगेंगे। राजनीतिक दलों में भी चुनाव जीतने के लिए यह होड़ बढ़ी, तो वे अपने-अपने घोषणा पत्रों में कहने लगे कि हर स्कूली बच्चे को टेबलेट देंगे। उन्हें सरकारी खर्चे पर कंप्यूटर दक्ष बनाएंगे। यह बात सिर्फ भारत में ही नहीं हो रही थी, दुनिया भर में ऐसा ही सोचा जा रहा था। आज से पंद्रह साल पहले स्वीडन ने स्कूलों से किताबों को विदा कर दिया था। स्कूलों के डिजिटलाइजेशन पर जोर दिया गया था। माना गया था कि इस तरह बच्चों को भविष्य के लिए अच्छी तरह से तैयार किया जा सकेगा, लेकिन अब डेढ़ दशक बाद, स्वीडन फिर से कक्षाओं में किताबों का प्रयोग शुरू कर रहा है। इस पर 13.2 करोड़ डॉलर खर्च किए जाएंगे। एक तरह से किताबों की वापसी हो रही है। किताबों की तरफ दोबारा लौटने का कारण बताया जा रहा है कि डिजिटल फर्स्ट के फैसले के कारण बच्चों की सीखने की मूलभूत क्षमता में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। उनके पढ़ने-लिखने की कुशलता को डिजिटलाइजेशन बढ़ा नहीं सका है। अब वहां इसे बैक टु बेसिक्स कहा जा रहा है। इसके अलावा, बच्चों का बढ़ता स्क्रीन टाइम भी वहां की सरकार के लिए चिंता का विषय है। वहां देखा गया कि स्क्रीन के सामने अधिक से अधिक समय बिताने के कारण बच्चों के सीखने की क्षमता कम हो रही है। स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। यह भी अच्छी बात है कि समय रहते सरकार को एहसास हुआ कि बच्चों के लिए किताबें पढ़ना-लिखना कितना जरूरी है। उन्हें लगा कि वर्ष 2009 में किताबों के खात्मे का जो फैसला लिया गया था, उसे पलटना ठीक है। अमेरिका के बारे में कहा जाता है कि वहां स्कूलों में डिजिटलाइजेशन अरसे से बढ़ रहा है। हालांकि, कोई भी देश शिक्षा के क्षेत्र में अब तक पूरी तरह से उस प्रकार डिजिटलाइज नहीं हुआ है, जैसे कि स्वीडन हुआ था। और बच्चों की बेहतरी को देखते हुए उसे फैसला वापस लेना पड़ा है। भारत में भी एक बयार-सी बह रही है, जिसमें बार-बार बताया जा रहा है कि बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई, उनके स्कूलों में अधिक से अधिक कंप्यूटर कितने जरूरी हैं। बहुत से माता-पिता भी उन्हीं स्कूलों का चुनाव करना चाहते हैं, जिनमें उनका बच्चा आंख खोलते ही कंप्यूटर दक्ष हो जाए। बहुत से स्कूलों के विज्ञापन भी बढ़-चढ़कर इस बारे में बताते हैं कि उनके यहां किस तरह की डिजिटल से जुड़ी सुविधाएं मौजूद हैं। यह बात बिल्कुल सच है कि कंप्यूटर और नेट अब हमारे जीवन का हिस्सा हैं। इन्हें जाने बिना कहीं नौकरी भी नहीं मिल सकती। लेकिन किताबें भी बहुत जरूरी हैं। किताबों से पढ़ने पर आंखों पर भी इतना जोर नहीं पड़ता। न ही माता-पिता को इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि बच्चा क्या देख रहा है। क्योंकि बच्चा जो देखता है, उसका उसके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। फिर किताबों की शेल्फ लाइफ भी अधिक होती है। उन्हें हर बार जहां से चाहो, वहां से पढ़ा जा सकता है। सीखा जा सकता है। उपयोग के बाद वे किसी दूसरे के काम भी आ सकती हैं। आज भी हमारे यहां ऐसी बहुत सी संस्थाएं हैं, जो पिछली कक्षा की किताबें मांगती हैं। और उन्हें उन बच्चों तक पहुंचाती हैं, जिन्हें इनकी जरूरत है। यह एक नेक काम भी है। पहले जब बड़े परिवार होते थे, तो बड़े भाई-बहनों की किताबें छोटे भाई-बहनों के काम आती ही थीं। अभी हमारे यहां किताबें बची हुई हैं। सरकारों को चाहिए कि वे ऐसी ही नीति बनाएं कि किताबें बची रहें।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Mar 06, 2025, 06:47 IST
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