Jhansi News: मउआ मेवा बेर कलेवा, गुलगुच बड़ी मिठाई, बुंदेलखंड में अब नहीं दिखाई देती भाई

झांसी। मउआ मेवा, बेर कलेवा, गुलगुच बड़ी मिठाई, जो बिटिया खौं सुख चाहौ तो बुंदेलखंड में करौ सगाई। चाऊमीन, पास्ता, बर्गर के जमाने में बुंदेलखंड की यह मिठाई और व्यंजन अब सिर्फ गुजरे जमाने की बात बनकर रह गए हैं। बुंदेली लोक कवियों के द्वारा लिखी गई इस काव्य पंक्ति में महुआ के सूखे हुए फूल की मेवा यानी कि किशमिश से तुलना की गई है, जबकि बेर के फल से बनने वाले खाद्य पदार्थों को सुबह के नाश्ते के रूप में काफी अच्छा माना गया है। मार्च और अप्रैल में महुआ का फूल आता है, इस फूल को बुंदेलखंड में सुखाकर रख लिया जाता था। इसके बाद इसके तरह-तरह के व्यंजन और मिठाई बनाई जाती थी। बारिश शुरू होने के साथ जून में महुआ का फल आता है उसे गुलगुच कहा जाता है, इसकी मिठास बड़ी-बड़ी मिठाइयों को पीछे छोड़ देती है। इसलिए कहा गया है कि अगर अपनी बिटिया को इन व्यंजनों का सुख देना हो तो उसकी शादी बुंदेलखंड में करनी चाहिए। पर, अब यह बुंदेली व्यंजन लुप्त होते जा रहे हैं, हां इतना जरूर है कि किसी भी प्रदेश के पर्यटन अफसर बुंदेली व्यंजन के नाम पर कचौड़ी, पकोड़ी और जलेबी स्टॉल पर रखकर सरकार से इनाम जीत लेते हैं पर असली बुुंदेली व्यंजनों का छोटा अ बड़ा आ भी इन्हें मालूम नहीं है।बुंदेलखंड की लटा. डुबरी और मुरका के सामने बड़ी- बड़ी मिठाइयां पीछेबुंदेली कवि रतिभानु कंज बताते हैं कि आज से करीब दो दशक पहले जनवरी की शुरूआत से लेकर मकर संक्रांति तक बुंदेलखंड के गांवों के चूल्हों पर देसी घी में सूखे महुओं को भूने जाने की महक आती रहती थी। भुने हुए महुओं को ओखली में डालकर उसमें तिल, मूंगफली, काजू और बादाम डालकर कुटाई की जाती थी, सारी चीजें एक साथ मिल जाने पर उसकी छोटी-छोटी चपाती की तरह थप्पी बनाई जाती थी, इसे लटा कहते थे। खाने में यह लाजवाब होता था। घी में कड़क भुने हुए महुओं को मूंगफली और काजू बादाम के साथ कूटकर चूर्ण बना लिया जाता था, इसे मुरका कहा जाता था। जब ठंड अपने पीक पर होती थी तो महुआ की डुबरी बनाई जाती थी, इसमें महुआ के फूल को घी में सेंककर पानी में डाला जाता था, इसके साथ मूंगफली, किशमिश, काजू और बादाम पीसकर डाले जाते थे। इसे करीब आठ से दस घंटे तक चूल्हे पर पकाया जाता था, डुबरी खाने के बाद गांव के लोग सर्दी में भी घूमते रहे तब भी उन्हें ठंड नहीं लग सकती थी। उस जमाने में मकर संक्रांति के मौके पर बच्चों के लिए इन बुंदेली मिठाइयों के सामने बड़ी- बड़ी मिठाइयां पीछे थीं। इसी तरह उसेवा के बेर और सूखे बेरों को सुखाकर इनका चूर्ण बनाया जाता था, इसे मिरचन कहा जाता है, इस मिरचन को गुड़ व नमक के साथ पानी में डालकर पेस्ट बनाकर खाया जाता था। कढ़ी भात और बरा मगौरा, ई कै बिना न टोरैं कौराइतिहासकार अजित पुरोहित बताते हैं कि किसी जमाने में यह कहावत प्रचलित थी कि, कढ़ी भात और बरा मगौरा, ई कै बिना न टोरैं कौरा, यानी कि बुंदेली भोजन में बूरा, बरा मगौरा, कढ़ी , चना की दाल, भात और कचरियां यह अतिविशिष्ट माना जाता था। किसी विशेष मेहमान के आने पर यह बनाया जाता था। पर, अब धीरे-धीरे यह बुंदेली व्यंजन विलुप्त हो रहे हैं। उड़द की दाल को गीला करके पीसकर चपाती के ही आकार में बरा बनाए जाते थे, जिसे घी में चलकर पानी में गलाकर, इसे शक्कर के बूरे से बड़े चाव से खाया जाता था। इसके साथ मूंग की दाल के मगौरा चलकर पानी में डालकर गलाए जाते थे, इन्हें पिसी हुई शक्कर के साथ खाया जाता था। कचरिया एक छोटे आकार का फल होता है जो खेतों में फसल कटने के साथ दिखाई देता है, किसान इन फलों को तोड़कर लोगों के घरों तक पहुंचाते थे, महिलाएं इन कचरियों को काटकर इनमें नमक मिलाकर सुखा लेती थीं, बाद में घी में तलकर इन्हें परोसा जाता था।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Jan 02, 2023, 22:45 IST
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