प्रकृति: पीर पर्वत की सुननी चाहिए.. सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पहाड़ी राज्यों के विकास मॉडल के लिए गंभीर चेतावनी

आसमान से बरसती आफत के बीच दरकते पहाड़ कराह रहे हैं। कई इलाकों के अस्तित्व पर संकट है। हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर व उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में प्राकृतिक आपदाएं साल दर साल बढ़ रही हैं। बादल फटने, भारी बारिश और भूस्खलन से जान-माल की बड़ी क्षति हो रही है। सावन-भादों हर साल आंसुओं के सैलाब लेकर आ रहे हैं। हिमाचल में बीते तीन साल में बादल फटने की सौ से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं। इस मानसून में करीब 50 जगह बादल फट चुके हैं। वर्ष 1949 के बाद इस बार अगस्त में सर्वाधिक 431 मिलीमीटर बारिश हुई, जो सामान्य से 68 फीसदी ज्यादा है। बादल फटने, बाढ़-भूस्खलन से 182 लोगों की जान जा चुकी है, 45 लापता हैं। अब तक 3,525 करोड़ रुपये का नुकसान झेल चुके हिमाचल को आपदा प्रभावित राज्य घोषित कर दिया गया है। बीते दिनों शीर्ष अदालत ने पारिस्थितिक असंतुलन पर गंभीर चिंता जताते हुए कहा कि यदि हालात ऐसे ही रहे, तो वह दिन दूर नहीं, जब हिमाचल नक्शे से ही गायब हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट की यह चेतावनी आंखें खोलने वाली है। जानकार लंबे अरसे से कह रहे हैं कि पहाड़ों पर बढ़ता मानवीय दखल, अंधाधुंध जल बिजली प्रोजेक्ट, फोरलेन, वन कटान और नदी-नालों के रास्तों में निर्माण आपदाओं की प्रमुख वजहें हैं। अच्छी सड़कें चाहिए, बिजली भी जरूरी है, लेकिन विकास के ऐसे मॉडल को बदलना होगा, जो आपके अस्तित्व को ही चुनौती देने लगे। करीब दो माह पहले मंडी के सराज में एक ही रात 17 जगह बादल फटने से भारी तबाही के बाद हिमाचल सरकार के आग्रह पर इसके कारण तलाशने के लिए केंद्र ने टीम भेजी। पहले भी कई अध्ययन हो चुके हैं, लेकिन रिपोर्टें फाइलों में दफन हैं। बरसात खत्म होते ही सब भूल जाते हैं। कभी बादल पर्वतीय क्षेत्रों में फटते थे, लेकिन अब ये आपदाएं मध्य पहाड़ी और आबादी वाले निचले इलाकों में लगातार हो रही हैं। पिघलते ग्लेशियरों से बन रही झीलें और बिजली प्रोजेक्टों के लिए बनाए जा रहे बांधों को भी इसके लिए जिम्मेदार माना जा रहा है। हिमाचल प्रदेश विज्ञान, प्रौद्योगिकी और पर्यावरण परिषद की रिपोर्ट बताती है कि सतलुज बेसिन के ग्लेशियरों में वर्ष 2019 में 562 झीलें थीं, जो 2023 में बढ़कर 1,048 हो गई हैं। आईआईटी, रोपड़ के एक अध्ययन में पाया गया कि हिमाचल का करीब 45 फीसदी हिस्सा भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाओं को लेकर संवेदनशील है। ग्लेशियर पिघलने की दर पिछले 25 वर्षों में दोगुनी हो गई है। विशेषज्ञों का मानना है कि हिमाचल में सतलुज बेसिन पर प्रस्तावित सभी पन बिजली परियोजनाएं यदि धरातल पर उतर गईं, तो खाब से लेकर भाखड़ा डैम तक करीब 150 किलोमीटर क्षेत्र में यह नदी ही लुप्त हो जाएगी। विकास परियोजनाएं ऐसी कंसल्टेंट एजेंसियों की रिपोर्ट पर बन रही हैं, जिन्हें पहाड़ों के मिजाज का पता ही नहीं है। विकास की अवधारणा में अर्थशास्त्र के हावी होने से भी कई पहलू नजरअंदाज हो रहे हैं। पहाड़ों की पारिस्थितिकी नाजुक है, लेकिन हमारा विकास मॉडल इसके विपरीत है। पहाड़ महफूज रहेंगे, तभी पर्यटन और कारोबार बढ़ेगा। पहाड़ों की भौगोलिक परिस्थितियों को समझने वाले स्थानीय संस्थानों को विकास परियोजनाओं के साथ जोड़ना जरूरी है। पूर्व के अध्ययनों को लिंक कर शोध संस्थान और नीति निर्माता समन्वय के साथ दूरगामी प्रभावों को ध्यान में रखकर योजनाएं बनाएंगे, तो पहाड़ों पर हर साल मच रही यह तबाही रुक सकती है। वैज्ञानिक आकलन के आधार पर संभावित खतरे के मद्देनजर क्षेत्रवार नो कंस्ट्रक्शन जोन को चिह्नित कर नए सिरे से विकास का खाका खींचना समय की जरूरत है।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Sep 05, 2025, 05:32 IST
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