शुचिता का सवाल: अंतिम निष्कर्ष से पहले न्यायिक तंत्र के आधार पर गहरा धक्का, शंकाओं का निवारण जरूरी है

दिल्ली उच्च न्यायालय के जस्टिस यशवंत वर्मा के आवास से कथित तौर पर भारी मात्रा में नकदी की बरामदगी की खबर ने तो देश को झकझोरा ही था, उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना द्वारा इससे जुड़ी शुरुआती जांच रिपोर्ट और जले हुए नोटों की तस्वीरें व वीडियो सार्वजनिक करने से सामने आए दृश्य भी कम स्तब्धकारी नहीं हैं। न्यायिक तंत्र के आधार को गहरा धक्का इस संबंध में दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस देवेंद्र कुमार उपाध्याय की आंतरिक जांच रिपोर्ट के बाद जस्टिस खन्ना ने मामले की विस्तृत जांच के लिए तीन न्यायाधीशों की समिति का गठन करने के साथ जस्टिस वर्मा को कोई कार्य न सौंपने की हिदायत भी दी है। जाहिर है कि जांच अभी चल रही है और अंतिम निष्कर्ष आना बाकी है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि इस पूरे घटनाक्रम ने न्यायाधीशों की निष्पक्षता और न्यायपालिका की बेदाग छवि, जो हमारे न्यायिक तंत्र के आधार भी हैं, को गहरा धक्का पहुंचाया है। करोड़ों के बैंक धोखाधड़ी मामले में भी जस्टिस वर्मा का नाम भारतीय संविधान ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर विशेष जोर इसलिए दिया है, ताकि यह बगैर किसी दबाव के न्याय कर सके। लेकिन यह स्वतंत्रता तभी सार्थक है, जब न्यायपालिका के सदस्य भी नैतिक व आचारिक दृष्टि से अपेक्षानुरूप ऊंचाई पर हों। भ्रष्टाचार के आरोपों से सिर्फ एक व्यक्ति की छवि नहीं, बल्कि पूरी न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता पर आघात होता है। गौरतलब है कि 2018 में गाजियाबाद स्थित सिंभावली चीनी मिल में हुए करोड़ों के बैंक धोखाधड़ी मामले में भी जस्टिस वर्मा का नाम आया था, जो तब चीनी मिल के गैर कार्यकारी निदेशक थे। दिल्ली अग्निशमन सेवा प्रमुख के बदलते बयानोंसे संदेह तब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर सीबीआई पूरे मामले की जांच कर रही थी, लेकिन उच्चतम न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय का आदेश पलटे जाने से जांच बंद हो गई थी। हालांकि ताजा मामले में जस्टिस वर्मा के घर पर आग बुझाने के दौरान दमकलकर्मियों को नकदी मिलने की बात पर दिल्ली अग्निशमन सेवा के प्रमुख के बदलते बयान भी संदेह पैदा करते हैं। बहरहाल, भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका न केवल संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करती है, बल्कि जन अधिकारों की अंतिम गारंटी भी है। शंकाओं का निवारण जरूरी है ऐसे में, जब संदेह की सुई किसी न्यायाधीश पर उठ रही हो, तब उसका समाधान जरूरी हो जाता है, जो केवल सख्त व पारदर्शी कार्रवाई से ही संभव है। यह पूरी न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता के लिए महत्वपूर्ण है। जनता में धारणा बन गई है कि न्यायपालिका इतनी संरक्षित होने के कारण इस सीमा तक स्वतंत्र है कि गलत करने पर भी इस पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। ऐसे में, शंकाओं का निवारण जरूरी है।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Mar 24, 2025, 05:13 IST
पूरी ख़बर पढ़ें »




शुचिता का सवाल: अंतिम निष्कर्ष से पहले न्यायिक तंत्र के आधार पर गहरा धक्का, शंकाओं का निवारण जरूरी है #Opinion #National #JusticeYashwantVerma #दिल्लीउच्चन्यायालय #जस्टिसयशवंतवर्मा #SubahSamachar