मुद्दा: विकास एक साझा सफर है, विश्व व्यवस्था में समान रूप से सहयोग की दरकार

हाल ही में जोहानिसबर्ग में संपन्न हुआ जी-20 शिखर सम्मेलन वैश्विक राजनीति में एक अहम मोड़ बनकर उभरा और यह इसलिए नहीं कि इस सम्मेलन में कौन-कौन-से देश शामिल हुए, बल्कि इसलिए कि इसमें कौन उपस्थित नहीं हुआ। अमेरिका के इसमें शामिल न होने पर शेष सदस्य देशों ने सम्मेलन की शुरुआत में ही संयुक्त घोषणापत्र के जरिये उम्मीद से ज्यादा एकजुटता का परिचय दिया। इसमें पक्का इरादा और जल्दबाजी, दोनों दिखी-यह दावा कि वैश्विक प्रशासन किसी एक ताकत का इंतजार नहीं कर सकती, चाहे वह कितनी भी असरदार क्यों न हो। दक्षिण अफ्रीका के नेतृत्व ने बातचीत को एकजुटता, बराबरी और सुधारों की ओर मोड़ा, जो वैश्विक दक्षिण की आवाज को ऐसे समय में बुलंद करना चाहता है, जब बहुपक्षीयता पर स्पष्ट दबाव दिख रहा है। जलवायु परिवर्तन, कर्ज की स्थिरता और वैश्विक असमानता के इर्द-गिर्द घोषणा की रूपरेखा ने विकासशील अर्थव्यवस्था को रोकने वाली संरचनागत रुकावटों की ओर ज्यादा इशारा किया। फिर भी, अमेरिका की गैरमौजूदगी के असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उसकी अनुपस्थिति के फैसले को बड़े पैमाने पर बहुपक्षीय जिम्मेदारियों से पीछे हटने के तौर पर देखा गया, खासकर जलवायु वित्त, कर्ज पुनर्गठन और विकासात्मक सहयोग से जुड़ी जिम्मेदारियों से। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के नाते, अमेरिका की भागीदारी अक्सर यह तय करती है कि वैश्विक वादे नतीजों में बदलेंगे या नहीं। उसके बिना, मजबूत घोषणाओं को भी लागू करने में दिक्कत आ सकती है। अब बड़ा सवाल यह है कि क्या अमेरिका के बगैर इन फैसलों को सफल बनाने के लिए जरूरी वित्तीय मदद और राजनीतिक इच्छाशक्ति मिलेगी। इस बदलते वैश्विक माहौल में, भारत ने एक खास जगह बनाई है। जोहानिसबर्ग में जिन विषयों को प्राथमिकता दी गई-समानता, कर्ज में राहत, जलवायु न्याय और सांस्थानिक सुधार-वे भारत के लंबे समय से चले आ रहे वैश्विक नजरिये से काफी मिलते-जुलते हैं। भारत ने लगातार विकासशील देशों का साथ दिया है, बहुपक्षीय कर्ज प्रदाता संस्थानों में सुधार की वकालत की है, और ज्यादा समावेशी प्रशासनिक संरचना की मांग की है। इस शिखर सम्मेलन के नतीजों से नई दिल्ली को वैश्विक दक्षिण का नेतृत्व करने का नया कूटनीतिक लाभ मिलेगा। एशियाई देश एक ज्यादा संतुलित वैश्विक व्यवस्था की ओर देख रहे हैं, और भारत औद्योगीकृत पश्चिम व वैश्विक दक्षिण की उम्मीदों के बीच एक पुल का काम कर सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने बार-बार सबको साथ लेकर चलने वाले वैश्विक सहयोग के लिए भारत के दृष्टिकोण को रेखांकित किया है और दुनिया के नेताओं को याद दिलाया है कि वसुधैव कुटुम्बकम को वैश्विक प्रशासन की संरचना का मार्गदर्शन करना चाहिए। उन्होंने कई वैश्विक मंचों पर भी इस पर जोर दिया है कि विकास एक साझा सफर है, कोई प्रतिस्पर्धा नहीं। यह यह सुनिश्चित करने के लिए है कि जलवायु लचीलापन, डिजिटल बदलाव के दौर में व सतत विकास के वैश्विक बदलाव में उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं पीछे न छूट जाएं। फिर भी, चुनौतियां बनी हुई हैं। घोषणाओं और कार्रवाई के बीच अब भी बड़ा अंतर है। नई वित्तीय प्रणाली या सांस्थानिक सुधारों के बिना, जलवायु न्याय और कर्ज की स्थिरता की उम्मीदें शायद कभी पूरी ही न हों। चीन के अड़ियल रवैये से पैदा होने वाले भू-राजनीतिक टकराव आम सहमति को मुश्किल बना सकते हैं। दुनिया के प्रतिस्पर्धी ताकतों के खेमे की ओर खिसकने का खतरा है, जिससे बहुपक्षीयता कमजोर होगी। भारत सहित विकासशील देशों को रोजगार, विकास और ऊर्जा सुरक्षा जैसी घरेलू जरूरतों के साथ वैश्विक वादों को संतुलित करना होगा। इसके लिए नई वित्तीय, राजनीतिक इच्छाशक्ति व अनुशासनात्मक कूटनीति की जरूरत है। जोहानिसबर्ग को उस शिखर सम्मेलन के तौर पर याद किया जा सकता है, जहां वैश्विक दक्षिण भरोसे के साथ आगे बढ़ा। इसने दबदबे के बजाय सहयोग पर आधारित एक ज्यादा बराबरी वाले विश्व व्यवस्था की संभावना का इशारा किया। जी-20 का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या यह भावना बनी रहती है और क्या सदस्य देश बड़ी घोषणाओं को नतीजों में बदल पाते हैं। अगर जोहानिसबर्ग के वादे नतीजों में बदल जाएं, तो दुनिया वैश्विक प्रशासन में एक ऐसा बदलाव देख सकती है, जिसमें साझा जिम्मेदारी और सबको साथ लेकर चलने वाले विकास को सर्वोपरि रखा जाएगा।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Nov 27, 2025, 06:54 IST
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