Amritsar News: दाल-रोटी घर दी... दिवाली अंबरसर दी
-परंपरा और सादगी का प्रतीक है अमृतसर की दिवाली----पंकज शर्माअमृतसर। दीपावली का पर्व भले ही आज आधुनिकता और चकाचौंध से घिर चुकी हो लेकिन अमृतसर की दिवाली आज भी अपने सांस्कृतिक रंगों और सादगी भरे मूल्यों के कारण अलग पहचान रखती है। गुरुनगरी में पीढ़ियों से सुनाई देने वाली कहावत दाल-रोटी घर दी, दिवाली अंबरसर दी आज भी सार्थक है। यह सिर्फ कहावत नहीं बल्कि जीवन-दर्शन है जो यह संदेश देती है कि त्योहारों की असली चमक बाहर नहीं भीतर और अपनेपन में है।स्वर्ण मंदिर परिसर, कटड़ा जयमल सिंह, गुरु बाजार, हॉल गेट, रामबाग, लॉरेंस रोड और पुराने शहर की तंग गलियों तक दिवाली की रौनक कई दिन पहले से दिखने लगती है। दीपों की पंक्तियां, कंदीलों की रोशनी और घरों में बसते उल्लास से अमृतसर त्योहार के असली स्वरूप को सहेजकर रखता है। श्री हरिमंदिर साहिब में दिवाली का विशेष महत्व है। रोशनी से नहाया सरोवर और आतिशबाजी का नजारा श्रद्धा, आस्था और उत्साह का दुर्लभ संगम रचता है। इतिहासकारों का मानना है कि दिवाली का उत्सव इस भूमि पर सिर्फ धार्मिक भावनाओं से नहीं बल्कि स्वाभिमान, स्वतंत्रता, भाईचारे और सामूहिक खुशियों से भी जुड़ा रहा है। यहां दिवाली रोशनी का पर्व भर नहीं बल्कि समुदाय की एकता का प्रतीक भी है।सादगी में संपन्नता की सीखअमृतसर के बुजुर्ग आज भी बच्चों को यह कहावत सुनाते हैं कि दाल-रोटी घर दी दिवाली अंबरसर दी। अर्थ यही है कि जीवन की मूल जरूरतें सरल हों लेकिन त्योहार अपने लोगों के बीच, अपनी धरती पर और अपनी परंपरा के साथ मनाए जाएं तभी उत्सव का आनंद पूर्ण होता है। यह संदेश आज की पीढ़ी को अनावश्यक दिखावे से दूर रहने और परिवार, परंपरा और रिश्तों की गर्मी को प्राथमिकता देने की प्रेरणा देता है। यहां की दिवाली में दिखावा कम और अपनापन अधिक है। घरों में बने व्यंजन- दाल, पनीर, पूरियां, हलवा, खीर और देसी घी के पकवान, घर का स्वाद त्योहार को जीवंत कर देते हैं।रिश्तों में रोशनीअमृतसर की दिवाली की खासियत है कि इस दिन दरवाजे सिर्फ दीये के लिए नहीं, पड़ोसियों और रिश्तों के लिए भी खुलते हैं। शहर में आज भी कई मोहल्लों में दिवाली सामुदायिक रूप से मनाई जाती है। बच्चे पटाखे, रंगोलियां और कंदील सजाते हैं, महिलाएं घरों की चौखट और आंगन को चमकाती हैं। पुरुष बाजार-सजावट और पूजा-सामग्री के इंतजाम में जुटते हैं।शाम होते ही सोहन हलवा, जलेबी, लड्डू और फुलझड़ियों के बीच चारों ओर बस एक ही एहसास फैलता है अपनापन और रोशनी एक-दूसरे की पहचान हैं।बाजारों में खास रौनकअमृतसर की दीपावली बाजार यूं तो हर साल रौनक और रोजगार से भर जाते हैं लेकिन शहर की आत्मा अब भी यह याद दिलाती है कि त्योहार की आत्मा खरीदारी में नहीं, सांझा खुशी में बसती है। इस वर्ष भी स्थानीय व्यापारियों ने स्थानीय खरीद, स्थानीय समृद्धि का संदेश दिया। वहीं समाजसेवी संस्थाओं ने जरूरतमंद परिवारों तक कपड़े, मिठाइयां और दीया-बत्ती पहुंचाकर दिवाली की असली रोशनी फैलाने का अभियान चलाया।प्रकृति और सेहत के प्रति जागरूकताशहर में पर्यावरण-हितैषी दिवाली को लेकर कई समूहों और स्कूलों ने कम आतिशबाजी और ग्रीन पटाखों का अभियान चलाया। मिट्टी के दीयों, प्राकृतिक रंगोलियों, देसी घी और सरसों के तेल से दीप जलाने की पुरानी परंपराओं को फिर बढ़ावा मिला। इस पहल का उद्देश्य यही था कि रोशनी हो लेकिन धुएं और शोर के बिना, प्रेम और शांति के साथ। दिवाली अमृतसर की आत्मा में बसती है और इस शहर की परंपरा आज भी दुनिया को एक गहरा संदेश देती है। सादगी में ही सबसे बड़ी समृद्धि है। रिश्तों में ही सबसे बड़ी रोशनी है। मंदिरों, गुरुघरों में भीड़, दूर-दूर से आते हैं संतदिवाली के दिन हजारों की सख्या में श्रद्धालु हरिमंदिर साहिब और दुर्ग्याणा तीर्थ जाकर नतमस्तक होते हैं। श्रद्धा और समर्पण का सबूत देते हैं। हजारों की संख्या में दिवाली व इसके आसपास के दिनों मे गुरु नगरी साधुओं से भर जाती है। दूर-दूर से संत इस पवित्र धरा को नतमस्तक करने के लिए आते है। यहां के लोग भी उनको श्रद्धा से यथा योग्य सम्मान देते हैं। यहीं अमृतसर की परंपरा और दिवाली की पहचान है।---सुनाम में अनूठी परंपरा दिवाली पर कोस मीनार को पूजते हैं लोग-सुनाम के सीतासर मंदिर के पास स्थित ऐतिहासिक धरोहर दीपों से होगी आलोकितसुशील कुमारसुनाम ऊधम सिंह वाला। दीपावली के पर्व पर सुनाम के प्राचीन सीतासर मंदिर के पास स्थित मध्यकालीन कोस मीनार को पूजने की सदियों पुरानी परंपरा आज भी बरकरार है। आसपास के बाशिंदे हर साल दीवाली से पहले इस ऐतिहासिक मीनार की साफ-सफाई और सजावट करते हैं। रविवार को स्थानीय निवासियों ने मीनार के चारों ओर सफाई अभियान चलाया और पुताई की। अब दीपावली की रात इस मीनार को दीयों से रोशन किया जाएगा।स्थानीय निवासियों मंजू रानी, पूनम, राजू, पूर्ण, गगन और विष्णु शर्मा ने बताया कि यह मीनार मुगलकाल की निशानी है जब इसे दूरी नापने के लिए बनाया गया था। उन्होंने कहा कि उनके पूर्वजों से चली आ रही यह परंपरा आज भी पूरे श्रद्धा भाव से निभाई जा रही है। इतिहासकारों के अनुसार आठवीं और नौवीं सदी में सड़क मार्ग की दूरी और दिशा बताने के लिए कोस मीनारें बनाई जाती थीं। यह प्राचीन भारत की अनमोल धरोहरें हैं। कई राज्यों में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) इन मीनारों का संरक्षण कर रहा है।सुनाम की कोस मीनार इस बात का प्रमाण है कि प्राचीन काल में मुख्य राष्ट्रीय मार्ग सुनाम से होकर हांसी, हिसार और दिल्ली तक जाता था। लेखक फौजा सिंह की पुस्तक सरहिंद थ्रू द एजेज में उल्लेख है कि तुगलक काल में सरहिंद एक राज्य थी और दिल्ली जाने वाला राष्ट्रीय मार्ग सुनाम से गुजरता था। इतिहासकार एलेक्जेंडर कनिंघम की आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, शिमला 1871 में भी इसका विस्तृत जिक्र है। जब तक सरस्वती नदी का प्रवाह सुनाम के पास बहता रहा यह मार्ग सक्रिय रहा। नदी के सूखने और रेत के टीले बनने के बाद यातायात कठिन हुआ जिसके बाद शेरशाह सूरी ने अपने शासनकाल में नया राष्ट्रीय मार्ग लुधियाना, सरहिंद, अंबाला होते हुए दिल्ली तक बनाया। आज हर किलोमीटर पर किलोमीटर स्टोन लगे हैं। वहीं अंग्रेजी शासन में मील से दूरी तय होती है और इससे पहले प्रत्येक कोस पर कोस मीनारें मार्गदर्शन का काम करती थीं जो आज भी इतिहास की जीवंत मिसाल हैं।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Oct 19, 2025, 19:39 IST
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