पर्यावरण: पारिस्थितिकीय बुनियाद में निवेश करना ही होगा... तभी हम शहरों को बचा सकेंगे
मानसून हमेशा ही कुछ उथल-पुथल लेकर आता है, लेकिन ये बदलाव नई सामान्य स्थिति बनते जा रहे हैं, जो बदलती जलवायु का संकेत है। यह ऊर्जा व जल प्रणाली पर भी दबाव डाल रहा है, क्योंकि हमारे शहर बिजली की बढ़ती खपत, पानी की मांग और सार्वजनिक बुनियादी ढांचे के कमजोर पड़ने जैसी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। घटती हरियाली, गायब होते तालाब, बंद होते प्राकृतिक नाले और कमजोर कचरा प्रबंधन, ये सब मिलकर भारी बारिश के समय शहर में बाढ़ और लू के समय जल संकट को और अधिक बढ़ा देते हैं। लेकिन ऐसे ब्लू और ग्रीन ढांचे, जिनमें प्राकृतिक या मानव निर्मित हरियाली वाले स्थान और जलाशय शामिल हैं, कई तरह से लाभ पहुंचाते हैं। झीलों का शहर उदयपुर इसका उपयुक्त उदाहरण है कि हरियाली (ग्रीन) और पानी (ब्लू) की एकीकृत अवसंरचना क्या असर दिखा सकती है। मानसून के समय रामसर वेटलैंड सिटी की मान्यता प्राप्त उदयपुर के तालाब और झीलें पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं से भर जाती हैं: बारिश के पानी को रोकती हैं, सतही जल की रफ्तार धीमा करती हैं, भूजल रिचार्ज करती हैं, आसपास के वातावरण को ठंडा रखती हैं और पास की बड़ी झीलों से आने वाले पानी को भी सोखती हैं। लेकिन ऐसे बुनियादी ढांचे को बरकरार रखने और जलवायु व जल चुनौतियों के प्रति लचीलेपन के लिए भारतीय शहरों को इन तीन प्रमुख उपायों के जरिये कार्रवाई करनी चाहिए। पहला उपाय, ग्रीन और ब्लू स्थानों को शहर की मास्टर योजनाओं में शामिल करना चाहिए, जो आम तौर पर 20 साल के लिए बनती हैं। अवैध रूप से इनका भूमि-उपयोग बदलने के खिलाफ स्पष्ट कानूनी प्रावधान होने चाहिए। शहरी प्राधिकरणों को यह समझना होगा कि लंबे समय में ये प्राकृतिक संपत्तियां जल सुरक्षा और शहरी बाढ़ के साथ-साथ उच्च तापमान की समस्या घटाने के लिए बहुत जरूरी हैं। आर्द्रभूमि (संरक्षण और प्रबंधन) नियम, 2017 में सभी भारतीय राज्यों में आर्द्रभूमि प्राधिकरण बनाने और संरक्षण के लिए चयनित आर्द्रभूमि को अधिसूचित करने का प्रावधान होने के बावजूद, केवल गोवा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान ने ही इस दिशा में प्रगति दिखाई है। इसी तरह नगर वन योजना को लागू करने में भी तेजी लानी चाहिए, जिसका उद्देश्य 2027 तक 1,000 शहरी वन विकसित करना है। दूसरा उपाय, शहरों को घरों से उपयोग के बाद निकलने वाले जल के प्रबंधन और पुनःउपयोग बढ़ाने के लिए विशेष योजनाएं बनानी चाहिए। ऐसी योजनाएं शहरी जल स्रोतों, जैसे स्थानीय जलाशयों, तालाबों के साथ-साथ जमीन को सीवेज के प्रदूषण से बचा सकती हैं, जिससे पारिस्थितिक तंत्र प्रभावी ढंग से अपनी आवश्यक सेवाएं दे पाएंगे। काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) का अध्ययन बताता है कि एक मजबूत योजना में जल संतुलन व गुणवत्ता आकलन, गैर-पेयजल कार्यों में पुनःउपयोग के विकल्प (जैसे कि लैंडस्कैप के विकास, निर्माण कार्य, सड़कों की सफाई, फायर स्टेशन, सार्वजनिक स्वच्छता सुविधाएं) चिन्हित करना, पुनःउपयोग के लिए व्यवहारिक लक्ष्य निर्धारण, उपचारित प्रयुक्त जल के आवंटन तंत्र को परिभाषित करना और कार्यान्वयन के लिए एक संस्थागत संरचना की रूपरेखा पेश करना शामिल होना चाहिए। तीसरा कदम, शहरों को ब्लू और ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण और रखरखाव के लिए स्थिर वित्तपोषण और नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए। इंदौर और अहमदाबाद में इस्तेमाल म्युनिसिपल बॉन्ड्स और राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के तहत सीवेज ट्रीटमेंट परियोजनाओं के निर्माण के लिए इस्तेमाल हाइब्रिड एन्युटी मॉडल दिखाते हैं कि क्या कुछ कर पाना संभव है। आम तौर पर वनीकरण के लिए उपयोग होने वाले नेशनल कंपेन्सेटरी अफॉरेस्टेशन मैनेजमेंट एंड प्लानिंग अथॉरिटी (सीएएमपीए) फंड को मौजूदा शहरी जंगलों और हरित गलियारों को बचाने के लिए भी इस्तेमाल करना चाहिए। प्राकृतिक या मानव निर्मित ढांचे के संचालन और रखरखाव जैसे कार्यों में नागरिकों की भागीदारी बढ़ानी चाहिए। जलापूर्ति, कचरा संग्रहण व निपटान और पार्कों व अन्य हरित स्थानों के रखरखाव जैसी सेवाओं की लागत निकालने के लिए इनका उपयोग-शुल्क तय करना जरूरी है। निम्न-आय परिवारों के लिए सब्सिडी जारी रहनी चाहिए, लेकिन शहरों को नागरिक जिम्मेदारी की मांग करने से नहीं हिचकिचना चाहिए। विकसित देशों में कोई भी शहर सार्वजनिक भागीदारी को लाए बगैर लचीला बुनियादी ढांचा नहीं बना पाया है। भारतीय शहर विकास, नौकरियों और समृद्धि के वाहक हैं। लेकिन वे जलवायु जोखिमों का भी तेजी से सामना कर रहे हैं। अगर हम शहरों की पारिस्थितिकीय बुनियाद (झीलों, जंगलों और जल निकासी तंत्र) में निवेश करने में विफल रहे, तो हम उनके भविष्य को खतरे में डाल देंगे।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Aug 13, 2025, 06:24 IST
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