Success Story: कम उम्र में घर छोड़ा, वेटर तक बने, अवसाद से जूझ कर बनाया करोड़ों का ब्रांड
कोलकाता की गलियों में रहने वाला एक शांत, पढ़ाई में डूबा रहने वाला लड़का डॉक्टर बनने का सपना देखता था, जबकि उसके पिता उसे इंजीनियर बनाना चाहते थे। लेकिन कला उसके भीतर जैसे जन्मजात थी। बचपन में वह खेल-खेल में पिता के मोजे काटकर बहन की गुड़ियों के लिए कपड़े बना देता था। उम्र बढ़ने के साथ उसके सपने भी बदलते गए। वह सैटरडे क्लब की दीवार फांदकर रोहित खोसला के फैशन शो देखने पहुंच जाता। दीवार से लटककर वह मेहर जेसिया और अर्जुन रामपाल को खोसला की डिजाइनों में रैंप पर चलते देखता, तो उसकी धड़कन तेज हो जाती, जैसे वह किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंच गया हो। उसी क्षण उसे एहसास हुआ कि वह जीवन में सिर्फ डिजाइनर बनना चाहता है। हम बात कर रहे हैं सब्यसाची ब्रांड के संस्थापक और भारत के सबसे मशहूर फैशन डिजाइनरों में से एक सब्यसाची मुखर्जी की। जिन्होंने अपने संघर्ष और धैर्य से न केवल करोड़ों का साम्राज्य खड़ा किया, बल्कि अपने ब्रांड को वैश्विक पहचान भी दिलाई। सब्यसाची आज अपनी अनूठी कलात्मक शैली, भारतीय हस्तकला के पुनर्जीवन और भव्य डिजाइन दर्शन के लिए दुनिया भर में पहचाने जाते हैं। इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्हें जिन कठिनाइयों से गुजरना पड़ा, वह हर उस युवा के लिए प्रेरणा है। शरणार्थी परिवार में जन्म सब्यसाची का जन्म 23 फरवरी, 1974 को कोलकाता के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ। उनके पिता बांग्लादेश से आए शरणार्थी थे और जूट उद्योग में काम करते थे, जबकि उनकी मां कला शिक्षिका थीं। परिवार साधारण था, लेकिन बचपन से ही सब्यसाची का कला, रंग और कपड़ों के प्रति गहरा लगाव था। वे शरारत में पिता के मोजे काटकर बहन की गुड़ियों के लिए छोटे-छोटे कपड़े तैयार कर दिया करते थे। यही शौक आगे चलकर उनका जुनून बन गया। लेकिन समय ने करवट ली। प्लास्टिक उद्योग के विस्तार ने जूट उद्योग को प्रभावित किया और उनके पिता की नौकरी चली गई। परिवार आर्थिक संकट में घिर गया। सिर्फ 15 वर्ष की उम्र में ही सब्यसाची को रोजमर्रा की जरूरतों के लिए संघर्ष करना पड़ा। पिता चाहते थे कि वह इंजीनियर बने, लेकिन सब्यसाची के मन में कला और डिजाइनर बनने का सपना गहराई से बस चुका था। कम उम्र में बेघर हुए जब सब्यसाची ने फैशन डिजाइनर बनने की इच्छा जताई, तो उनके पिता इस फैसले के खिलाफ हो गए और पढ़ाई के लिए पैसे देने से भी मना कर दिया। परिवार के विरोध और आर्थिक तंगी के बावजूद उनके सपनों की लौ बुझी नहीं। सिर्फ 16 साल की उम्र में वे घर छोड़कर गोवा चले गए, जहां उन्होंने होटल में वेटर की नौकरी की। इसी आय से वे निफ्ट का फॉर्म भरने के लिए पैसे जुटाते थे। पैसे कम पड़ने पर उन्होंने अपनी किताबें भी बेच दीं। काम और पढ़ाई के बीच संतुलन बनाते हुए उन्होंने कड़ी मेहनत की और आखिरकार निफ्ट की परीक्षा पास कर ली। यह उनके जीवन की पहली बड़ी जीत थी। जब आत्महत्या का आया ख्याल निफ्ट के बाद उन्होंने अहमदाबाद के राष्ट्रीय डिजाइन संस्थान में दाखिला लिया। लेकिन आर्थिक संकट, परिवार से दूरी, खुद को साबित करने का दबाव और बढ़ते जोखिमों ने उन्हें मानसिक रूप से तोड़ना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे वे गहरे अवसाद में चले गए। हालत इतनी खराब हो गई कि उन्होंने आत्महत्या करने तक की कोशिश की। उसी समय उनकी मां ने एक बात कही 'अवसाद भी सर्दी-जुकाम जितना आम है।' इसके बाद उन्होंने अपने मानसिक संघर्ष को स्वीकार किया और धीरे-धीरे खुद को मजबूत बनाना शुरू किया। कई साल के अवसाद के बावजूद, जीवन ने उनके सामने रचनात्मक संभावनाओं के नए द्वार खोल दिए। तीन कर्मचारियों से शुरुआत साल 1999 में निफ्ट से स्नातक होने के बाद सब्यसाची ने नौकरी न करके अपनी खुद की कंपनी शुरू करने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने अपनी बहन से 20,000 रुपये उधार लिए और सिर्फ तीन कर्मचारियों के साथ एक छोटा सा वर्कशॉप शुरू किया। वे वहीं सोते और रात-रातभर डिजाइनों पर काम करते थे। कई साल तक लगातार मेहनत कर उन्होंने अपने ब्रांड को पहचान दिलाने की कोशिश की। भारतीय हस्तकला को अंतरराष्ट्रीय मंच पर बेहद खूबसूरती से पेश किया। आज उनका ब्रांड भारतीय फैशन उद्योग के प्रतिष्ठित ब्रांडों में गिना जाता है। देश-विदेश में उनके शोरूम हैं, और उनका कारोबार करोड़ों में आंका जाता है। ये भी पढ़ें:ये हैं मथुरा की राधिका: बचपन में सीखा हुनर, सैकड़ों महिलाओं की संवार चुकी हैं जिंदगी; पढ़ें संघर्ष की कहानी युवाओं को सीख आर्थिक तंगी, अवसाद या विफलता भी आपको रोक नहीं सकती, जब तक आप खुद को न रोकें। छोटे कदम भी बड़े सपनों की शुरुआत बन सकते हैं। सपनों का रास्ता मुश्किल जरूर होता है, पर नामुमकिन नहीं।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Nov 24, 2025, 04:50 IST
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