फादर्स डे: हमें खुद के करीब लाते हैं ऐसे दिवस और देतें हैं रिश्तों के मूल्यांकन का मौका
पूज्य पापा, आप सोच रहे होंगे कि आज के जमाने में मुझे पत्र लिखने की क्या जरूरत पड़ गई वह इसलिए कि कल फादर्स डे है। आप कहेंगे, अरे ये फादर्स डे, मदर्स डे क्या होता है तुम तो हर दिन ही फादर्स डे, मदर्स डे के रूप में मनाते हो। पर मुझे लगता है, पिताजी कि हैप्पी फादर्स डे तो मेरी पत्नी, बच्चे भी आपसे कहेंगे। और आप मुस्कराकर पूछेंगे भी कि आज के दिन तुम लोगों को क्या चाहिए! मां भी कहेंगी कि आप बच्चों के लिए कोई गिफ्ट खरीद दें। पर मुझे लगता है कि ऐसे दिवस सिर्फ उस पुत्री या पुत्र को ढूंढने आते हैं, जो अपनी दिनचर्या में गुम हो चुके हैं। हैप्पी फादर्स डे कहकर या गिफ्ट देकर वे वापस अपने फोन में, रील के संग चिपकना चाहते हैं या मीटिंगों में व्यस्त रहना चाहते हैं, पर कुछ कहना या सुनना नहीं चाहते। बहुत हुआ तो मैनेजर अवतार में घर को कुछ निर्देश देते हैं और शाम में आकर रिव्यू करते हैं कि फादर्स डे में किसने क्या गिफ्ट दिया और बाहर से पिज्जा या कुछ और मंगाया गया या नहीं। लेकिन मेरे लिए तो फादर्स डे आपके पास बैठना, आपके साथ वॉक करना, विभिन्न विषयों पर बातचीत करना होता है। और जब कभी आप कृष्ण भाव में डांटते हैं, समझाते हैं, तो मैं भी अर्जुन भाव में सुनने की कोशिश करता हूं। लेकिन यह भी सच है कि वृद्ध व्यक्ति या पीले पड़ते पत्तों के लिए कोई समाज तैयार नहीं मालूम पड़ता और वह गहरी संवेदनशीलता नहीं महसूस होती, जो किसी भी सामाजिक प्राण की संभावना होती है। यहां तक कि सबसे निकटतम संबंध भी उस माता-पिता के पास नहीं रुकना चाहता। और बहाना समय की कमी का होता है। एक सूखापन, निष्ठुरता और मैं और मेरा में उलझा हुआ यह समाज बाल सुलभ भाव के साथ कुछ पल के लिए ही सही, अपने पिता या मां के पास बैठने का समय नहीं निकाल पाता। क्योंकि अधिकांश जगह भावनाओं को डिजिटल दुनिया और बाजार ने कैद कर रखा है। अगर कभी उस भाव से रूबरू होना होता है, तो परिवार को घर के दरख्त से निकल कर मॉल की बेजान दीवारों के पास आना पड़ता है, जहां पूरा परिवार अपनों से थोड़ी देर के लिए ही सही, पर मिल जरूर पाता है। बाजार हमारे अंदर धैर्य और ठहराव सृजित करता है, क्योंकि भले ही घरों में अंधेरा रहे, बाजार रात भर रोशनी बिखेरता है। ऐसे में एक पुत्री या पुत्र के लिए अपने पिता या मां को सुनना, समझना और मन तक पहुंचने का मन बनाना थोड़ा बेमन-सा कार्य हो जाता है। आप भी यह मानेंगे कि शायद पिता की तरफ से पुत्र को कुछ कहने की मानसिक ताकत और वह भावनात्मक विश्वास सत्तर की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते कुछ कमजोर-सा पड़ जाता है, क्योंकि पुत्र भी तब तक पिता बन चुका होता है और आत्मनिर्भर भी। लेकिन पिताजी, आपको जो भी लगे, बेबाक बोलते रहिए, सुनूंगा मैं। क्योंकि मैं भी तो कुछ बड़ा हुआ हूं, और वैसे ही, जैसे आप और मां चाहती हैं। उस सबल पेड़ की तरह, जिसकी जड़ें गहरी होती हैं और इन जड़ों से ही मैं अपने माता-पिता से जुड़ा हूं। ऐसे दिवस हमें खुद के करीब लाते हैं और रिश्तों के मूल्यांकन का भी मौका देते हैं। नेटवर्किंग की चकमक में माता-पिता को ढूंढना आसान नहीं होता। इसलिए सोच रहा हूं कि फादर्स डे के दिन एक पुत्री या पुत्र को अपने पिता की सुबह बननी चाहिए, जिससे कि उनका हर दिन फादर्स डे बन सके। मतलब यह कि चाहे माता-पिता के साथ रहते हों, या दूर, लेकिन हमारे बेडरूम से माता-पिता के कमरे का सफर दुरूह और नीरस नहीं होना चाहिए। बल्कि कुछ ऐसा, जैसे सिद्धार्थ से गौतम बनने का सफर। दुनिया कहती है कि बुजुर्गों को नींद कम ही आती है, या जल्दी सो जाते हैं, तो जल्दी उठ भी जाते हैं। मैं भी हमेशा जल्दी ही उठना चाहता हूं, पिताजी। सुबह की चाय साथ पीने या कभी बनाने का मौका नहीं खोना चाहता और सुबह का पहला घंटा आप दोनों के संग बिताना चाहता हूं। मैं अन्य लोगों से भी यह कहना चाहता हूं कि अगर पैरेंट्स हों, दूर हों या बहुत दूर हों, तो भी आप सुबह ही उठ जाइए। सुबह के पहले घंटे को ऐसे दिन की तरह बिताइए, जिसमें माता-पिता अपने बेटे या बेटी से मिल सकें। फोन पर, सामने या यादों में। पर सुबह की पहली मुलाकात तो माता-पिता से ही बनती है। अगर मैं जल्दी नहीं उठ पाता, तो आपके साथ प्रतिदिन चलने या वॉक करने का मौका ही खो दूंगा। साथ चलना अच्छा होता है न पिताजी! आजकल सभी फोन के साथ चलते हैं, पर मैं सुबह इसलिए उठना चाहता हूं, पिताजी कि आपके साथ चलूं और जीवन की सलाह सुनता रहूं। मैं बस आपकी सुबह में शामिल रहना चाहता हूं। अगर मां घर की सुबह हैं, जो हमें जीवन का एहसास देती है, तो आप उस सुबह का तेज हैं, जो हमें ऊर्जावान बनाता है। मुझे लगता है कि एक पुत्र का चार बार जन्म होता है। एक, उसकी बाल्यावस्था, दूसरा, जब उसकी शादी होती है, तीसरा, जब वह पिता बनता है, और चौथा जब उसके मां-बाप कुछ वृद्ध होने लगते हैं। इस तरह यह यात्रा उसके मनुष्य होने का बोध कराती है। आपको याद होगा कि पिछले साल हम सभी अयोध्या राम मंदिर गए थे और दर्शन करने के बाद जब हम सभी बाहर निकले, तो मैं आप लोगों को बिना बताए दोबारा दर्शन करने चला गया। आपको लगा कि मैं गुम गया हूं या मेरी कोई चीज खो गई है। आप मंदिर प्रांगण में अपनी चिंता को ठीक से बता भी नहीं पाए और न ही मुझे अपने स्वाभाविक रूप से डांटा। मैं समझ गया कि आप परेशान हो गए हैं। फिर हम साथ-साथ चलने लगे और मैंने आपको छूते हुए धीरे से सॉरी भी कहा। दर्शन की सुबह सार्थक हुई। राम ने पिता को सुना था और मैं भी अपने पिता को सुनने और महसूस करने की कोशिश कर रहा था। जब हम अपने माता-पिता में दुनिया का सबसे अच्छा इन्सान पाते हैं, तो फिर घर में ही गुडनेस का दार्शनिक और व्यावहारिक दर्शन भी कर लेते हैं। मैं भी अपने बच्चों के लिए एक अच्छा इन्सान बनना चाहता हूं और पैरेंटिंग में फेल नहीं होना चाहता। अगर मेरे बच्चे मुझमें वह अच्छा इन्सान नहीं ढूंढ पाए, तो यह मेरी विफलता होगी। आपलोग तो फर्स्ट हो गए, मैं भी फर्स्ट आना चाहता हूं, एक अच्छा इन्सान बनकर। आज मैं अपनी पहली कविता फिर से आपको सुनाना चाहता हूं: मां के निःशब्द सपनों को/ और पिता के बढ़ते कदमों को,/ कुछ थमा देख, कुछ थका देख,/ उनके मन को कुछ झुका देख,/देखो मैं यह प्रण कर चला,/मैं फिर कुछ आगे बढ़ चला।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Jun 14, 2025, 07:31 IST
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