त्रिनेत्र गणपति मंदिर जहां हर दिन पहुंचते हैं हजारों पत्र और निमंत्रण, होती है मनोकामनाएं पूरी
राजस्थान के रणथम्भौर किले में स्थित त्रिनेत्र गणेश मंदिर विश्वभर में अनोखी पहचान रखता है। यह ऐसा इकलौता मंदिर है, जहां हर साल करोड़ों की संख्या में भक्त भगवान गणेश को चिट्ठियां और निमंत्रण पत्र भेजते हैं। शादी, गृह प्रवेश या कोई भी शुभ कार्य हो सबसे पहले भक्त गणपति बप्पा को पत्र द्वारा आमंत्रित करते हैं। यहां डाकिया इन पत्रों को श्रद्धा से मंदिर तक पहुंचाता है और पुजारी उन्हें भगवान के सम्मुख पढ़कर सुनाते हैं। मान्यता है कि त्रिनेत्र गणेशजी को पत्र भेजने से हर कार्य निर्विघ्न संपन्न होता है। त्रिनेत्र स्वरूप की अद्भुत मान्यता इस मंदिर में भगवान गणेश त्रिनेत्र रूप में विराजमान हैं। उनका तीसरा नेत्र ज्ञान और शक्ति का प्रतीक माना जाता है। गजवंदनम चितयम ग्रंथ में भी विनायक के तीसरे नेत्र का उल्लेख मिलता है। मान्यता है कि भगवान शिव ने अपना तीसरा नेत्र अपने उत्तराधिकारी के रूप में गणेश को प्रदान किया था, जिसके बाद वे त्रिनेत्र कहलाए। भारत के चार स्वयंभू गणेश मंदिरों में रणथम्भौर का यह मंदिर पहला माना जाता है। यह मंदिर अरावली और विंध्य की पहाड़ियों के बीच 1579 फीट की ऊंचाई पर स्थित है, जहां तक पहुंचने के लिए लंबी सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। Ganesh Chaturthi 2025:भाद्रपद महीने में ही क्यों मनाई जाती है गणेश चतुर्थी जानिए कारण पत्र और निमंत्रण से पूर्ण होती हैं इच्छाएं कहा जाता है कि गणेशजी को भेजे गए पत्र और निमंत्रण कभी व्यर्थ नहीं जाते। रोजाना हजारों पत्र मंदिर में पहुंचते हैं और पुजारी उन्हें पढ़कर भगवान को अर्पित करते हैं। विश्वास है कि यहां की गई सच्ची प्रार्थना और विनती अवश्य पूरी होती है। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को यहां विशाल मेले का आयोजन होता है, जिसमें लाखों भक्त शामिल होकर गणेशजी की परिक्रमा करते हैं। सात किलोमीटर लंबी इस परिक्रमा को भक्त नाचते-गाते और जयकारों के साथ पूरा करते हैं। बरसात में यहां की प्राकृतिक सुंदरता, झरनों और हरियाली से वातावरण और भी मनमोहक हो उठता है। Ganesh Chaturthi 2025:पहली बार करने जा रहे हैं गणेश जी की स्थापना पहले जान लें ये जरूरी नियम पौराणिक कथाएं रणथम्भौर गणेशजी से जुड़ी कई किंवदंतियां भी लोकविश्वास में प्रचलित हैं। कहा जाता है कि जब भगवान शिव ने बाल्यावस्था में गणेशजी का मस्तक काटा था, तो वह सिर यहीं आकर गिरा था, तभी से यहां गणपति के बालरूप की पूजा होने लगी। एक अन्य कथा के अनुसार, जब द्वापर युग में श्रीकृष्ण का विवाह रुक्मणी से हुआ, तो वे गणेशजी को बुलाना भूल गए थे। नाराज़ गणपति के वाहन मूषक ने रथ का रास्ता खोद दिया। तब कृष्ण ने यहीं आकर गणेशजी को प्रसन्न किया, इसलिए रणथम्भौर के गणेश को भारत का प्रथम गणेश भी कहा जाता है। मान्यता यह भी है कि भगवान राम ने लंका जाने से पूर्व यहीं गणेशजी के इस रूप का अभिषेक किया था। किंवदंती है कि सम्राट विक्रमादित्य भी हर बुधवार को यहां पूजा के लिए आते थे।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Aug 27, 2025, 11:51 IST
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