Hasya: गोपालप्रसाद व्यास की हास्य कविता- पलकों पर किसे बिठाऊं मैं ?
तन भी दुरुस्त, मन भी दुरुस्त, टी.बी. का नहीं कुयोग प्रिये! पच जाता दूध, दही, मक्खन, खप जाता मोहनभोग प्रिये! कहते हैं, “कभी-कभी तो तुम कुछ बात समझ की किया करो! कुछ बात मान भी लिया करो! इस हरदम की ही-ही-हू-हू ठट्ठे मज़ाक को छोड़ो तुम, लिख चुके बहुत परिहास, "व्यास", गंभीर तुकें अब जोड़ो तुम।” कहते हैं, "ऐसे गीत लिखो जिनमें से आहें आती हों। जिनसे उच्छ्वास उफनते हों, दिल की धड़कन बढ़ जाती हों, तुम आंख मूंदकर सपनों में, खो जाओ रे, सो जाओ रे! घर के किस्से लिख लिए बहुत अब कवि-दुनिया में आओ रे!" "तो तुम्हीं कहो, पुष्पा की माँ' अब किस बज़ार में जाऊँ मैं गंभीर भाव के ये सौदे कितने तक में कर आऊँ मैं या बिना भाव ही लिखूं-पढूं, या बिना गले ही गाऊँ मैं या बिना चोट ही 'हाय मरा!' 'मर चला हाय!' चिल्लाऊँ मैं! मैं बोलो किससे प्रेम करूँ, खुद ही पसंद कर ला दो न! कैसे उससे व्यवहार करूँ, आता हो तो सिखला दो न! किस तरह भरी जाती आहें, किस तरह निगाहें मिलती हैं, किस तरह भ्रमर मंडराते हैं, तितली किस तरह मचलती है!
- Source: www.amarujala.com
- Published: Jul 03, 2025, 20:30 IST
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