समय-चक्र : आखिर आंबेडकर पर इतना प्रेम कैसे आया, पंडित नेहरू ने किया कई बार अपमान... उत्तराधिकारी कर रहे गुणगान

समय कितना बलवान होता है-इसकी एक बानगी बीते 14 अप्रैल को संविधान निर्माता बाबासाहेब डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर की 134वीं जयंती पर देखने को मिली। देश भर में इस दिन कई कार्यक्रम आयोजित हुए। अपेक्षानुरूप, सभी राजनीतिक दल डॉ. आंबेडकर का यशोगान भी कर रहे थे। इस दौरान जो पार्टी सर्वाधिक असहज दिखी, वह कांग्रेस है। इस राष्ट्रीय दल का शीर्ष नेतृत्व (गांधी परिवार) पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू का वशंज है और उसके अन्य नेता भी उन्हीं के वैचारिक अधिष्ठान को अंगीकार किए हुए हैं। पं. नेहरू ने अपने जीवनकाल में बार-बार डॉ. आंबेडकर का अपमान किया। स्वतंत्रता पश्चात बाबासाहेब चुनकर लोकसभा न पहुंचें, उसके लिए भी उन्होंने कई दांवपेच अपनाए। समय का खेल देखिए कि आज वही कांग्रेस और पं. नेहरू के उत्तराधिकारी, डॉ. आंबेडकर की विरासत पर अपना अधिकार जता रहे हैं। बाबासाहेब ने सामाजिक अन्याय के खिलाफ सतत संघर्ष किया। वह भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार भी थे। स्वतंत्रता आंदोलन में विभिन्न राजनेताओं के बीच वैचारिक असहमति के बावजूद एक-दूसरे के प्रति परस्पर आदर-सम्मान था और संवाद अक्षुण्ण। इसलिए मतभेद (पूना-पैक्ट सहित) के बाद भी गांधी जी ने गैर-कांग्रेसी डॉ. आंबेडकर के गुणों को पहचाना और उन्हें स्वतंत्र भारत का पहला कानून मंत्री और संविधान सभा की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाने में मुख्य भूमिका निभाई। डॉ. आंबेडकर का प्रयास भारतीय समाज में वैमनस्य-शत्रुता बढ़ाने के बजाय छुआछूत जैसी सामाजिक कुरीतियों का परिमार्जन करना था। यह ठीक है कि भारतीय समाज आज भी जातिगत भेदभाव से मुक्त नहीं हुआ है। दुर्भाग्य से उसके अवशेष यदाकदा प्रकट हो जाते हैं और सामाजिक समरसता को बाधित करते हैं। परंतु बौद्धिक स्तर पर कोई भी इसका समर्थन नहीं करता। डॉ. आंबेडकर ने संविधान में दलितों-वंचितों के लिए 10 वर्षीय अस्थायी आरक्षण की व्यवस्था की थी, जिसे संसद सर्वसम्मति से हर बार आगे बढ़ाती है। यह बाबासाहेब के चिंतन अनुरूप ही है। भारतीय सनातन संस्कृति से डॉ. आंबेडकर का जुड़ाव कितना गहरा था, यह उनके पत्राचारों में अक्सर मां भवानी की तस्वीर और जय भवानी मोनोग्राम होने से स्पष्ट है। इसकी एक झलक बाबासाहेब द्वारा संकलित संविधान की दोनों मूल प्रतिलिपियों में नटराज (शिवजी), श्रीराम, श्रीकृष्ण, भगवान गौतमबुद्ध, भगवान महावीर, छत्रपति शिवाजी महाराज, गुरु गोबिंद सिंह जी आदि के चित्रों के रूप में भी मिलती है। पं. नेहरू का डॉ. आंबेडकर के प्रति अपमानजनक व शत्रुतापूर्ण रवैये का कारण क्या था संभवत: इसका उत्तर व्यक्तिगत द्वेष और महत्वाकांक्षा में छिपा है। गांधी जी के हस्तक्षेप से डॉ. आंबेडकर के साथ अन्य गैर-कांग्रेसी डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में शामिल हुए थे। बाद में पं. नेहरू के परममित्र शेख अब्दुल्ला की कश्मीरी जेल में डॉ. मुखर्जी की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। वहीं, 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में डॉ. आंबेडकर ने उत्तर-मुंबई सीट से पर्चा भरा था। उनके खिलाफ कांग्रेस ने दूध-विक्रेता नारायण काजरोलकर को चुनाव मैदान में उतार दिया। तब डॉ. आंबेडकर को वामपंथियों ने देशद्रोही कहकर संबोधित किया। बाबासाहेब लगभग 14,000 मतों से हार गए। उनकी दूसरी पत्नी सविता आंबेडकर ने अपनी आत्मकथा बाबासाहेब : माय लाइफ विद डॉ. आंबेडकर में दावा किया था कि पं. नेहरू ने वामपंथियों के साथ मिलकर डॉ. आंबेडकर को हराया था। यही नहीं, अपनी मित्र एडविना माउंटबेटन को चिट्ठी लिखकर पं. नेहरू ने बाबासाहेब की पराजय पर हर्ष और संतोष भी जताया था। इससे पहले पं. नेहरू ने 1946 में डॉ. आंबेडकर को अंग्रेजों का सहयोगी भी बताया था। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। आखिर वैचारिक तौर पर डॉ. आंबेडकर के सबसे निकट कौन है ईमानदार अध्ययन के बाद कह सकते हैं कि भारतीय राजनीति में हिंदुत्व चिंतक व डॉ. आंबेडकर के बीच कई स्तरों पर वैचारिक साम्यता है। प्रमुख हिंदुत्व विचारकों ने अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्ष किया था। कांग्रेस के शीर्ष नेता और लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष राहुल गांधी अक्सर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और वीर सावरकर के विरुद्ध हमलावर रहते हैं। यह स्थिति तब है, जब डॉ. आंबेडकर खुद संघ व सावरकर के प्रशंसक थे और संघ-सावरकर, आंबेडकर के सबसे बड़े समर्थकों में से एक। अन्य हिंदुत्व नेता स्वामी श्रद्धानंद को दलित उत्थान में उनके योगदान के लिए बाबासाहेब ने अस्पृश्यों के सबसे महान और निष्कलंक पक्षधर कहा था। केवल अस्पृश्यता उन्मूलन नहीं, अन्य विषयों में भी डॉ. आंबेडकर और हिंदुत्व पक्षकार समान दृष्टिकोण रखते थे। दोनों ही इस्लामी कट्टरवाद को लेकर सतर्क थे, आर्य आक्रमण सिद्धांत को ध्वस्त करते, साम्यवाद को संदेह की दृष्टि से देखते और पं. नेहरू की चीन-तिब्बत नीति को अव्यावहारिक मानते थे। इसमें संदेह नहीं कि डॉ. आंबेडकर हिंदू समाज की कुरीतियों से असंतुष्ट थे। अपनी मृत्यु से केवल 53 दिन पहले 14 अक्तूबर 1956 को डॉ. आंबेडकर ने अपने कई अनुयायियों के साथ बौद्ध पंथ अपनाया था। यह एक सोचा-समझा निर्णय था। दावा है कि इस्लाम मानवीय भाईचारे और समता का प्रतीक है। परंतु उन्होंने इस्लाम को नहीं चुना। इसके मुख्य दो कारण थे। पहला-उनका निजी अनुभव। वर्ष 1934 में दौलताबाद किले (महाराष्ट्र) पर पानी पीते समय मुस्लिमों ने डॉ. आंबेडकर और उनके साथियों को जातिसूचक गालियां देकर विरोध किया था। दूसरा-डॉ. आंबेडकर मानते थे, इस्लाम में भाईचारा, सार्वभौमिक भ्रातृत्व नहीं हैमुसलमानों के लिए हिंदू काफिर हैं। डॉ. आंबेडकर अपने समुदाय को जातिगत भेदभाव के दंश से मुक्त कराना चाहते थे, वह भी उन्हें उनकी मूल सांस्कृतिक जड़ों से काटे बिना। बाबासाहेब के लिए नई पूजा-पद्धति ऐसी होनी चाहिए थी, जिसमें भारत की बहुलतावादी परंपरा समाहित हो। वह मानते थे, इस्लाम या ईसाई में मतांतरण निम्न वर्गों का देश से भावनात्मक विच्छेदन कर देगा। आखिर कांग्रेस ने डॉ. आंबेडकर पर अपनी नेहरूवादी नीति को तिलांजलि क्यों दी दलितों को हिंदू समाज में बनाए रखने व उन्हें कांग्रेस से जोड़ने में गांधी जी के समावेशी दर्शन ने मुख्य भूमिका निभाई थी। कांग्रेस दशकों से गांधी जी के नाम पर राजनीति करती रही है, किंतु गांधीवाद पर उसकी कथनी-करनी में गहरा विरोधाभास रहा है। यही कारण है कि बड़ा दलित वर्ग उससे दूर होता गया। कांग्रेस का वर्तमान आंबेडकर प्रेम अपने खोए जनाधार को पुनर्प्राप्त करने की एक चुनावी व्याकुलता है। क्या यह संयोग मात्र है कि जैसे-जैसे कांग्रेस का राजनीतिक ह्रास हुआ, वैसे-वैसे बाबासाहेब का कद भारतीय सार्वजनिक जीवन में बढ़ता गया

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Apr 18, 2025, 06:53 IST
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