जहर का कारोबार: आखिर ये सिरप बाजार में पहुंचते कैसे हैं? इसकी समीक्षा भी जरूरी

छिंदवाड़ा, बैतुल और पंधुरना-ये तीनो मध्य प्रदेश के ग्रामीण जिले हैं, जहां ज्यादातर आदिवासी आबादी रहती है। इन तीनों जिलों में लगभग दो दर्जन बच्चों की मौत हो गई, जिनमें से अधिकतर पांच वर्ष से कम उम्र के थे, जिन्होंने डायथिलीन ग्लाइकॉल (डीईजी) से संदूषित कफ सिरप पिया था। डीईजी का सेवन विशेष रूप से बच्चों में किडनी फेल होने और मृत्यु का कारण बनता है। दवा के रूप में यह जहर मध्य प्रदेश के कई जिलों और राजस्थान में फैल गया, जिससे और भी जानें गईं। इस मामले में अब तक तीन दूषित कफ सिरप की पहचान की गई है: कोल्ड्रिफ, रेस्पिफ्रेश टीआर और रीलाइफ। तमिलनाडु स्थित श्रीसन फार्मास्युटिकल्स, कोल्ड्रिफ का निर्माण करती थी। रेडनेक्स फार्मास्युटिकल्स और शेप फार्मा की भी दूषित सिरप बनाने वाली कंपनियां है। श्रीसन के मालिक को गिरफ्तार कर उसका विनिर्माण लाइसेंस रद्द कर दिया गया है। पिछले कुछ वर्षों में भारत में बने डीईजी-दूषित सिरप के कारण दुनिया भर में कम से कम 150 बच्चों की मौत हो चुकी है। हालिया त्रासदी एक भयावह शृंखला में शामिल हो गई है: 2022 में गांबिया, उसी वर्ष उज्बेकिस्तान, 2020 में जम्मू और कश्मीर, 1998 में गुड़गांव, 1986 में मुंबई। हर बार, यही क्रम दोहराया जाता है—दूषित सिरप, मृत बच्चे, जन आक्रोश, और फिर सन्नाटा। गिरफ्तारियां तो होती हैं, लेकिन भारत में दवाओं को दूषित करने के आरोप में किसी को जेल नहीं भेजा गया है। तमिलनाडु औषधि नियंत्रण विभाग के निरीक्षण में पाया गया कि श्रीसन फार्मास्युटिकल्स ने 364 विनिर्माण नियमों का उल्लंघन किया है, जिनमें से 39 'बहुत गंभीर' और 325 'गंभीर' श्रेणी के हैं। खबरों के मुताबिक, रिपोर्ट में अयोग्य कर्मचारियों, घटिया पानी और उपकरणों, कीट नियंत्रण की कमी, उत्पादन निगरानी प्रक्रियाओं की कमी, और गुणवत्ता आश्वासन या डाटा संग्रह के अभाव का हवाला दिया गया है। सिरप में इस्तेमाल किया गया डीईजी कथित तौर पर बिना बिल के खरीदा गया था, जिससे अवैध स्रोत का संकेत मिलता है। पुलिस ने उस डॉक्टर को भी गिरफ्तार कर लिया है, जिसने यह सिरप लिखा था, हालांकि चिकित्सा समूहों का तर्क है कि असली जिम्मेदारी नियामकों की है, न कि चिकित्सकों की। लेकिन सिर्फ गिरफ्तारी से व्यवस्था ठीक नहीं होगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भारत की नियामक खामियों पर गहरी चिंता व्यक्त की है और चेतावनी दी है कि ऐसी दवाएं अनियमित माध्यमों से दूसरे देशों तक पहुंच सकती हैं। भारत का कहना है कि इनमें से किसी भी सिरप का निर्यात नहीं किया गया, लेकिन अतीत को मिटाया नहीं जा सकता। भारत में डीईजी त्रासदियों में मौतों का भूगोल चिंताजनक रूप से एक जैसा है। पीड़ित लगभग हमेशा गरीब, ग्रामीण और बेजुबान होते हैं। ये सिरप सस्ते होने के कारण गरीब लोग खरीदते हैं। निर्माता अक्सर छोटी कंपनियां होती हैं, जिन पर बहुत कम निगरानी होती है, और ये ढीले खरीद मानकों वाले राज्यों में अपना उत्पाद बेचते हैं। आखिर ये सिरप शहरी भारत के संपन्न इलाकों में क्यों नहीं पहुंचते जाने-माने जन स्वास्थ्य कार्यकर्ता और 'द ट्रुथ पिल: द मिथ ऑफ ड्रग रेगुलेशन इन इंडिया' के सह-लेखक दिनेश ठाकुर कहते हैं: 'संपन्न लोग शायद इन उत्पादों को उन दुकानों से खरीदते हैं, जहां छोटी और मध्यम दवा कंपनियों द्वारा बनाए गए कफ सिरप नहीं होते। बड़े शहरों की दवा दुकानों में बड़ी दवा कंपनियों द्वारा बनाए गए कफ सिरप मिलते हैं, जो एक हद तक औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940 की अनुसूची एम का पालन करती हैं।' अनुसूची एम भारत में दवा उत्पादों के लिए उत्तम विनिर्माण प्रथाओं (जीएमपी) की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। दिसंबर 2023 में अधिसूचित विनिर्माण नियमों को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाने और गुणवत्ता नियंत्रण को मजबूत करने के लिए हाल ही में संशोधित करके अद्यतन किया गया है। एक निश्चित आय स्तर से ऊपर के शहरी भारतीय अपनी दवाइयां बेहतर स्टॉक वाली फार्मेसियों से खरीदते हैं, ब्रांडेड विकल्पों की मांग करते हैं, तथा ऐसे स्थानों पर रहते हैं, जहां मीडिया की जांच और नियामक दृश्यता अधिक होती है। संक्षेप में, जो सिरप छिंदवाड़ा में लोगों की जान लेता है, वह दिल्ली के पॉश डिफेंस कॉलोनी या मुंबई के बांद्रा वेस्ट में कभी नहीं पहुंच पाएगा। इसलिए जहां नियामकीय विफलता स्पष्ट रूप से ऐसी घटिया और खतरनाक दवाओं को बाजार में आने देने के लिए जिम्मेदार है, वहीं यह भारत की दो-स्तरीय स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का भी स्पष्ट संकेत है। एक ओर, भारत में अच्छी गुणवत्ता वाली दवाएं (जिनमें जेनेरिक भी शामिल हैं) जिंदगी बचाती हैं। दूसरी ओर, सस्ते और खतरनाक सिरप बच्चों की जान ले लेते हैं। सुरक्षा अब अधिकार नहीं, विशेषाधिकार बन गया है। भारत में डीईजी-दूषित सिरप की हालिया त्रासदी में एक प्रमुख नियामकीय खामी केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) और राज्य औषधि नियंत्रण प्राधिकरणों के बीच एक-दूसरे पर दोष मढ़ने और जवाबदेही की कमी है। यह औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम के दोहरे नियामक ढांचे से उपजा है, जहां सीडीएससीओ राष्ट्रीय नीति, लाइसेंसिंग और निर्यात को संभालता है, जबकि राज्य प्रवर्तन, निरीक्षण और स्थानीय लाइसेंसिंग का प्रबंधन करते हैं, जिसके चलते असंगत निरीक्षण, विलंबित प्रतिक्रियाएं और एक-दूसरे पर दोष मढ़ा जाता है, जिससे रोकथाम में बाधा आती है। जैसा कि वैश्विक स्वास्थ्य नीति और जैव नैतिकता विशेषज्ञ डॉ. अनंत भान कहते हैं: 'सभी भारतीय फार्मा कंपनियों को बदनाम नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन नियामक ढांचे में लगातार खामियों का मतलब है कि दवाओं की गुणवत्ता, प्रभावकारिता और सुरक्षा के लिए कठोर परीक्षण और निगरानी नहीं हो रही है। इसके अलावा दवाओं के अतार्किक संयोजनों को भी खत्म करने की जरूरत है। भारत के पास ऐसी त्रासदियों को रोकने की क्षमता है, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है। अगर भारतीय दवा उद्योग के व्यावसायिक हितों की रक्षा प्राथमिकता बनी रही, तो सार्थक सुधारों में रुकावटें आएंगी। इस रक्षात्मक रुख ने व्यवस्थागत खामियों को जारी रहने दिया है। विडंबना यह है कि, गांबिया, उज्बेकिस्तान और अब मध्य प्रदेश जैसी त्रासदियों के कारण यह मामला वैश्विक सुर्खियों में है, जो अब भारत की फार्मा प्रतिष्ठा को धूमिल कर रहा है।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Oct 13, 2025, 07:44 IST
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