अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट का 'सुपर बॉस' भारत: हम 'विश्व-गुरु' हैं! सियासी प्रभाव और आर्थिक ताकत के मामले में...
जबनरेंद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने तो भाजपा और आरएसएस ने देश को 'विश्व-गुरु' बनाने की अपनी महत्वाकांक्षा का जोर-शोर से प्रचार किया। गुजरते वक्त के साथ उनकी यह महत्त्वाकांक्षा पीछे छूटती जा रही है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हमारी नाकामियां चाहे जो भी हों, अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के क्षेत्र में भारत अब सबसे शक्तिशाली 'खिलाड़ी' है। यह अलग बात है कि इससे क्रिकेट का कितना भला हुआ है मैंने 2017 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई 'प्रशासकों की समिति' के एक सदस्य के रूप में कुछ महीने बिताए थे। इस समिति का उद्देश्य भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की गतिविधियों में अधिक जिम्मेदारी और पारदर्शिता लाना था, लेकिन यह इसमें असफल रहा। मैंने देखा कि बीसीसीआई के अधिकारी दूसरे सभी क्रिकेट बोर्डों को अपने अधीन करना चाहते हैं। एक इतिहासकार होने के नाते यह बात मुझे चिंतित करती थी, क्योंकि मैं जानता था कि अतीत में गोरे देशों का साम्राज्यवादी अहंकार शायद ही कभी खेल के हित में काम आया हो। जैसा कि मैंने अपनी 2022 की पुस्तक 'द कॉमनवेल्थ ऑफ क्रिकेट' में लिखा है- "मैंने बीसीसीआई में अपने सहयोगियों से कहा कि अंग्रेजी और ऑस्ट्रेलियाई आधिपत्य ने अक्सर दुनिया भर में क्रिकेट के बड़े हितों के खिलाफ काम किया है। मैंने तर्क दिया कि भारत को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के लिए वैसा नहीं बनना चाहिए, जैसा अमेरिका अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लिए है, खुद नियम बनाना और जब चीजें उनके अनुसार न हो तो अंतरराष्ट्रीय संधियों की अवहेलना करना।" ये चेतावनियां मुझे रॉड लायल की नई किताब 'द क्लब एंपायर, पावर एंड द गवर्नेस ऑफ वर्ल्ड क्रिकेट' पढ़ते हुए याद आ गई। किताब की शुरुआत इंपीरियल क्रिकेट कॉन्फ्रेंस की कहानी से होती है, जिसकी स्थापना 1909 में शाही खनन के दिग्गज अबे बेली के दिमाग की उपज थी। अपने शुरुआती कुछ दशकों में आईसीसी पर इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैंड जैसे श्वेत प्रभुत्व वाले देशों का दबदबा था। इन देशों में खासकर इंग्लैंड यह तय करता था कि अंतरराष्ट्रीय खेल कैसे खेला जाएगा नए सदस्यों को शामिल करने की प्रक्रिया क्या होगी दौरे और सीरीज कैसे तय किए जाएंगे। कानून और नियम कैसे बनाए जाएंगे भारत, पाकिस्तान और वेस्टइंडीज जैसे क्रिकेट खेलने वाले देशों के साथ उपेक्षा और यहां तक कि अवमानना का व्यवहार किया जाता था। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के संचालन में उनकी कोई भूमिका नहीं थी। यह एक साम्राज्यवादी और यहां तक कि नस्लवादी खेल व्यवस्था थी। 1946 तक आईसीसी की बैठक में बीसीसीआई का प्रतिनिधित्व एक अंग्रेज करता था। 1950 और उसके बाद जब ब्रिटिश उपनिवेश स्वतंत्र राष्ट्र बने तो उनके क्रिकेट प्रशासकों ने आईसीसी को और अधिक लोकतांत्रिक बनाने की कोशिश की। रॉड लायल बताते हैं कि भारत और पाकिस्तान अक्सर इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए मिलकर काम करते थे। 1965 में, आईसीसी में 'आई' शब्द 'इंपीरियल' से बदलकर 'इंटरनेशनल' हो गया और 1989 में 'कॉन्फ्रेंस' शब्द की जगह 'काउंसिल' शब्द ने ले ली। 2005 में आईसीसी का मुख्यालय लंदन से दुबई स्थानांतरित हो गया, जिससे संगठन उपमहाद्वीप में अपने नए शक्ति-आधार के और करीब आ गया। अपनी किताब के आखिरी हिस्से में लायल लिखते हैं कि हाल के दशकों में भारत विश्व क्रिकेट के संचालन पर कैसे हावी हुआ उनके विवरण में कुछ खामियां हैं, जैसे कि 1983 विश्व कप जीत के महत्व को नजरअंदाज करना और बिना किसी प्रमाण के 2011विश्व कप फाइनल के बारे में 'फिक्स' होने का संदेह जताना। इसके बाद भी बीसीसीआई की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के प्रति लायल का दृष्टिकोण निष्पक्ष है। वह लिखते हैं कि पूर्व बीसीसीआई और आईसीसी अध्यक्ष शशांक मनोहर शायद अकेले ऐसे शीर्ष प्रशासक थे, जिन्होंने बीसीसीआई के संकीर्ण हितों से आगे सोचने की हिम्मत दिखाई। दिसंबर 2024 में भारतीय गृह मंत्री के बेटे आईसीसी के अध्यक्ष बने। जय शाह की पदोन्नति के बारे में लायल लिखते हैं- "एक समय में एमसीसी को विदेशी डेस्क माना जाता था, लेकिन आईसीसी अब एक अतिराष्ट्रवादी भारतीय राजनीतिक दल और उसकी कॉर्पोरेट महत्वाकांक्षाओं का साधन बनता जा रहा है। यह विश्व क्रिकेट के 'टॉवर ऑफ साइलेंस' पर गिद्धों के मंडराने जैसा है। यहां 'राष्ट्रवादी' की जगह 'अंधराष्ट्रवादी' शब्द का इस्तेमाल अधिक सटीक है।' इंग्लैंड के पूर्व कप्तान टोनी ग्रेग ने 2012 में ही चेतावनी दी थी कि बीसीसीआई के एमसीसी जैसा बनने का खतरा है। उन्होंने क्रिकेट की प्रमुख समस्याएं- जुआ, खराब प्रशासन और शक्ति का असमान वितरण जैसी बातें कही थीं और बताया था कि यदि भारत क्रिकेट की भावना को अपनाए और उसका पालन करे तो अधिकतर समस्याएं हल हो सकती हैं। हालांकि यह उम्मीद गलत साबित हुई। बीसीसीआई ने आईसीसी पर कब्जा जमाने के लिए अपने वित्तीय प्रभाव का इस्तेमाल किया। आज अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट प्रशासन की स्थिति को देखते हुए लायल का निष्कर्ष है- 'भारत का प्रभुत्व इस कारण है कि उपमहाद्वीप में क्रिकेट के प्रति अपार रुचि है। अतीत में इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और उनके सहयोगियों का वर्चस्व अत्यंत शर्मनाक था। लेकिन यह तथ्य भारतीय पूंजीवाद की क्रूरता, कुछ राष्ट्रवादी राजनेताओं और कुलीन वर्गों द्वारा क्रिकेट को बंधक बनाए रखने को उचित नहीं ठहरा सकता।' विडंबना यह है कि बीसीसीआई को ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के प्रशासकों का समर्थन प्राप्त है, जबकि इससे दक्षिण अफ्रीका और वेस्टइंडीज के खिलाड़ी, क्रिकेट प्रेमी और क्रिकेट प्रशासक भी अलग-थलग पड़ गए हैं। पिछले विश्व टेस्ट चैंपियनशिप के अंत में जारी किया गया वीडियो, जिसमें जय शाह को विजेता दक्षिण अफ्रीकी टीम की तुलना में क्रिकेट से अधिक महत्वपूर्ण दिखाया गया था, यह प्रवृत्ति साफ दिखाई देती है। 1909 में अपनी स्थापना के बाद से ही आईसीसी षड्यंत्रों और अक्षमता का अड्डा रहा है। अब इसमें भ्रष्टाचार और द्वेष भी जुड़ गया है। अंग्रेजों के दौर में भी इसने क्रिकेट प्रेमियों के लिए बहुत कुछ नहीं किया और भारतीय नियंत्रण में भी इसमें कुछ सुधार नहीं हुआ। यह भी स्पष्ट नहीं है कि बीसीसीआई ने भारतीय क्रिकेट की अच्छी सेवा की है या नहीं। सभी को मालूम है कि टेस्ट क्रिकेट खेल का सर्वोच्च रूप है, लेकिन तीनों विश्व टेस्ट चैंपियनशिप में भारत जीत नहीं पाया है। पहले न्यूजीलैंड, फिर ऑस्ट्रेलिया से हार गया। तीसरी बार तो भारत फाइनल में भी नहीं पहुंच पाया। जहां तक वैश्विक क्रिकेट प्रशासन की बात है तो भारत पिछली शताब्दी में कई अलग-अलग चरणों से गुजरा है- पहले अंग्रेजों के वर्चस्व के प्रति सम्मान, फिर नेतृत्व की चाह और अंततः एक दबंग आधिपत्य। राजनीतिक प्रभाव के मामले में हम अमेरिका, चीन और रूस से बहुत पीछे हो सकते हैं। आर्थिक ताकत के मामले में हमारी वर्तमान रैंकिंग 137वीं है। लेकिन जब बात अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट की होती है तो हम न केवल 'विश्व-गुरु' हैं, बल्कि 'सुपरबॉस'भीहैं।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Aug 24, 2025, 06:36 IST
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