अंतरराष्ट्रीय कूटनीति: आखिर चीन पर कितना भरोसा कर सकते हैं, विवाद सुलझाने व उकसावे से बचने की कितनी इच्छाशक्ति

भारत और चीन, जिनके द्विपक्षीय संबंध 2020 के गलवान टकराव के बाद से तनावपूर्ण बने हुए थे, अब धीरे-धीरे एक सतर्क थॉ यानी पिघलाव की ओर बढ़ते दिख रहे हैं। इस बदलाव के पीछे मुख्य कारण अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आक्रामक टैरिफ नीतियों से पैदा हुई आर्थिक और भू-राजनीतिक उथल-पुथल है। ट्रंप ने कई देशों के खिलाफ टैरिफ को हथियार की तरह इस्तेमाल किया है, तो पाकिस्तान को लुभाने के नए प्रयास किए हैं, जिससे नई दिल्ली और बीजिंग, दोनों की रणनीतिक गणना प्रभावित हुई है। भारत को 27 अगस्त से 50 फीसदी टैरिफ झेलना पड़ सकता है। चीन को भी टैरिफ का सामना करना पड़ा है, लेकिन ट्रंप ने उस पर अपेक्षाकृत नरमी बरती है, क्योंकि चीन ने अमेरिका पर अपनी पकड़ दिखाते हुए दुर्लभ खनिज के निर्यात पर रोक लगा दी थी, जो अमेरिकी उद्योग के लिए अत्यावश्यक हैं। ट्रंप का चीन को 90 दिन की टैरिफ मोहलत देने का मतलब है कि बीजिंग से लंबे आर्थिक युद्ध के परिणाम अमेरिका के लिए भी भारी पड़ सकते हैं। इस असामान्य वैश्विक स्थिति में चीन ने भारत के प्रति समर्थन जताने की कोशिश की है, खासकर रूस से तेल आयात करने के भारत के संप्रभु अधिकार पर। चीनी अधिकारियों और मीडिया ने ट्रंप को धौंस जमाने वाला कहकर पेश किया और खुद को भारत की स्वतंत्रता का सम्मान करने वाला साझेदार बताया। ये कदम चाहे परिस्थितिजन्य हों, लेकिन इन्होंने भारत और चीन को कुछ क्षेत्रों में संवाद पुनः शुरू करने का कूटनीतिक अवसर जरूर दिया है। दोनों देशों के बीच प्रत्यक्ष उड़ानें सितंबर 2025 तक फिर शुरू होने की संभावना है, जिससे कोविड-19 और गलवान टकराव के बाद रुकी आवाजाही बहाल होगी। भारत ने पांच साल बाद चीनी नागरिकों को पर्यटक वीजा देना फिर शुरू किया है और कैलाश-मानसरोवर यात्रा भी भारतीय श्रद्धालुओं के लिए बहाल हो गई है, जो आपसी विश्वास बहाल करने का प्रतीकात्मक कदम है। व्यापार में भी हलचल दिखने लगी है; जुलाई में भारत से पहली बार डीजल की खेप चीन भेजी गई। ये सारे कदम अक्तूबर 2024 के सीमा समझौते के बाद आए हैं, जिसमें एलएसी पर भारतीय ग्रामीणों को फिर से चराई और गश्त की अनुमति मिली थी। भारत और चीन, दोनों समझते हैं कि अमेरिकी संरक्षणवाद, खासकर ऐसे राष्ट्रपति के नेतृत्व में जो लेन-देन आधारित कूटनीति अपनाते हैं, उनके आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचा सकता है। भारत के लिए यह संकट तब आया है, जब वह अपनी अर्थव्यवस्था को सेवा क्षेत्र से विनिर्माण क्षेत्र की ओर मोड़ने की कोशिश कर रहा है। इसके लिए चीन की मशीनरी, पूंजी और प्रशिक्षित श्रमिकों की जरूरत है। चीन के लिए भारत के साथ संतुलित संबंध बनाए रखना अमेरिकी दबाव के खिलाफ एक ढाल का काम कर सकता है और नई दिल्ली को पूरी तरह वाशिंगटन के रणनीतिक घेरे में जाने से रोक सकता है। यह तात्कालिक हितों का मेल है, कोई गहरा रणनीतिक गठबंधन नहीं, लेकिन दोनों पक्षों के लिए तनाव कम करने का कारण जरूर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चीन दौरा, जहां वह इस महीने के अंत में शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में शामिल होंगे, सात साल में पहला होगा और राष्ट्रपति शी जिनपिंग से पिछले दस महीनों में पहली द्विपक्षीय मुलाकात होगी। इस तरह की मुलाकात के दृश्यात्मक संदेश निश्चित रूप से ध्यान खींचेंगे, खासकर वाशिंगटन में, जहां ट्रंप प्रशासन ने पहले से ही संकेत दे दिए हैं कि वह संबंधों को संकीर्ण लेन-देन वाले नजरिये से देख रहा है। इसके बावजूद, मौजूदा थॉ विरोधाभासों से मुक्त नहीं है। चीन पाकिस्तान के साथ अपने गहरे सैन्य और परमाणु सहयोग को बनाए हुए है और ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान द्वारा चीनी हथियारों का इस्तेमाल भारत के संज्ञान में है। यारलुंग सांगपो (ब्रह्मपुत्र) पर चीन का विशाल बांध निर्माण और अक्साई चिन से होकर गुजरने वाली नई रेललाइन भारत की सुरक्षा चिंताओं को बढ़ाती है। शंघाई सहयोग संगठन जैसे बहुपक्षीय मंचों पर बीजिंग ने जम्मू-कश्मीर में हुए हमलों की निंदा वाले बयानों को रोक दिया, पर बलूचिस्तान हिंसा को प्रमुखता से रखा-इसे पाकिस्तान समर्थक रुख माना गया। इन कदमों से स्पष्ट है कि चीन का मौजूदा रुख सामरिक अवसरवाद पर आधारित है, जिसे भारत-अमेरिका के बीच हालिया तनाव ने बढ़ावा दिया है। द्विपक्षीय विवादों पर इसकी मूलभूत स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। भारत ने भी संतुलित प्रतिक्रिया दी है-रूस के साथ अपनी रणनीतिक साझेदारी दोहराई है, ग्लोबल साउथ के नेताओं से संवाद किया है और अमेरिका तथा चीन, दोनों के साथ बातचीत के लिए खुलापन दिखाया है, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर चीन को जवाब भी दिया है। नई दिल्ली के लिए चुनौती यह है कि वह मौजूदा जुड़ाव से ठोस लाभ निकाले, बिना अपने मूल हितों से समझौता किए। उड़ानों, वीजा और यात्राओं की बहाली से माहौल जरूर सुधरता है, लेकिन असली परीक्षा सीमा प्रबंधन, जल संसाधनों की सुरक्षा और व्यापार व निवेश प्रवाह को संतुलित व टिकाऊ बनाए रखने में होगी। भारत की विनिर्माण महत्वाकांक्षाओं के लिए चीन की वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं में भूमिका को नजरअंदाज करना मुश्किल है। इंडो-पैसिफिक के व्यापक संदर्भ में, भारत और चीन के बीच सीमित पिघलाव भी मौजूदा समीकरणों को प्रभावित कर सकता है। ट्रंप की नीति-जिसमें भारत को टैरिफ नीति में चीन से ज्यादा कठोरता का सामना करना पड़ा-नई दिल्ली को अपने आर्थिक हितों की रक्षा के लिए वैकल्पिक साझेदारियां खोजने को प्रेरित कर सकती है। इसका मतलब यह नहीं कि भारत रणनीतिक रूप से चीन के साथ खड़ा होगा, लेकिन ऊर्जा सुरक्षा और कुछ क्षेत्रीय कनेक्टिविटी मुद्दों पर व्यावहारिक सहयोग संभव है। अमेरिका के लिए यह चेतावनी है कि अत्यधिक दबाव डालने वाली आर्थिक नीतियां रणनीतिक संबंधों को कमजोर कर सकती हैं। चीन के लिए यह मौका है कि वह देख सके कि क्या भारत के साथ सीमित सहयोग, विवादों के बावजूद, टिकाऊ रह सकता है। अंततः, मौजूदा गर्माहट को स्थायी मेल-मिलाप के बजाय सामरिक जरूरत के रूप में देखना चाहिए। दोनों देश बदली परिस्थितियों में सहयोग की सीमाओं को परख रहे हैं। अविश्वास के मूल कारण-सीमा विवाद, चीन-पाकिस्तान संबंध और क्षेत्रीय नेतृत्व को लेकर प्रतिस्पर्धा-यथावत हैं। बदला है, तो सिर्फ रणनीतिक वातावरण, जिसमें अमेरिकी नीति ने अनजाने में भारत और चीन, दोनों को पुनः जुड़ाव को परखने का अवसर दिया है। यह संबंध स्थिर रूप ले पाएगा या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि दोनों पक्ष बुनियादी विवाद सुलझाने और उकसावे से बचने की कितनी इच्छाशक्ति रखते हैं। तब तक, यह थॉ नाजुक ही रहेगा।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Aug 21, 2025, 06:30 IST
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