पड़ोसी से सीखे जाने लायक सबक: देशों को समझने और अनुभवों से सीखने का मंत्र है यह किताब, राजनीति की गहरी समझ...
भारतीय मध्यमवर्गीय परिवारों से आने वाले लोग, खासकर अंग्रेजी बोलने वाले जब भी अपने ज्ञान के दायरे को बढ़ाना चाहते हैं तो अक्सर पश्चिम की ओर देखते हैं। अमेरिका और ब्रिटेन उनकी पहली पसंद होते हैं। फ्रांस और इटली भी आकर्षण का हिस्सा बन जाते हैं, लेकिन पड़ोसी देशों- नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, भूटान और म्यांमार को जानने-समझने की हमारी प्रवृत्ति बहुत कम है। बचपन की यादें और नेपाल उत्तराखंड का निवासी होने के कारण नेपाल के इतिहास और संस्कृति से मेरा परिचय बचपन से ही रहा। 18वीं शताब्दी के अंत में देहरादून सहित उत्तराखंड के कई हिस्से गोरखा साम्राज्य के अधीन थे। अंग्रेजों के आने के बाद भी गोरखा रेजिमेंट का प्रभाव बना रहा। मेरे बचपन पर यह प्रभाव कई तरह से दिखता था। जिस विद्यालय में मैंने पढ़ाई की, उसकी स्थापना नेपाल के राणा शासक वर्ग के प्रवासियों ने की थी। घर से विद्यालय तक का रास्ता नेपाली भाषी बस्ती गढ़ी से होकर गुजरता था। खेल के मेरे पहले हीरो ईस्ट बंगाल के फुटबालर राम बहादुर छेत्री थे। वह नेपाली मूल के थे और ऑफ सीजन में हमारे गृह नगर में क्रिकेट क्लब चलाते थे। युवावस्था में ये संबंध और गहरे हुए। मैंने कई बार नेपाल की यात्राएं कीं और आज भी मेरे करीबी मित्रों में से एक काठमांडू में संपादक हैं। इसलिए मैंने उस राष्ट्र पर प्रत्यूष ओंटा, लोकरंजन परजुली और मार्क लिच्टी द्वारा संपादित निबंधों की पुस्तक नेपाल इन द लॉन्ग 1950 दिलचस्पी के साथ पढ़ी। इस किताब को मार्टिन चौतारी ने काठमांडू में प्रकाशित किया था। यह पुस्तक राणा शासन के पतन और 1950 के दशक में उभरे नए नेपाल का चित्रण करती है। राणा शासन ने स्वतंत्र सोच और सांस्कृतिक रचनात्मकता को दबा दिया था, इसलिए यह दशक राजनीतिक खुलापन और बौद्धिक पुनर्जागरण का दौर बना। चाय पर लोकतंत्र और फुटबाल की चर्चा पुस्तक का पहला निबंध प्रवाश गौतम का है, जो तिलौरी मैलाको पासल नामक चाय की दुकान पर केंद्रित है। चाय नेपाली परंपरा का हिस्सा नहीं थी। यह आदत नेपाली सैनिक विदेश से लेकर आए थे। यह दुकान लोकतांत्रिक अधिकारों के कार्यकर्ताओं, फुटबाल खिलाड़ियों और प्रशंसकों की बैठक का अड्डा बन गई। गौरतलब है कि उस दौर के काठमांडू में अधिकांश भोजनालय जाति आधारित थे, लेकिन यह दुकान सभी के लिए खुली थी। हालांकि पूर्वाग्रह पूरी तरह खत्म नहीं हुए थे। निम्न जाति के लोग बाहर बैठते थे और उच्च जाति के लोग भीतर। विकास का सपना बंदना ग्यावली का निबंध बताता है कि 1950 के दशक में विकास का विचार नेपाली समाज की कल्पना का केंद्र कैसे बना एशिया और अफ्रीका के अन्य नए राष्ट्रों की तरह नेपाल में भी यह धारणा बनी कि आधुनिकता का रास्ता सड़कें, कारखाने, बिजली संयंत्र और बड़े शहर हैं। फर्क केवल इतना था कि पूंजीवादी दृष्टिकोण इसे बाजार और विदेशी मदद से जोड़ता था, जबकि समाजवादी इसे राज्य और अग्रणी दल की जिम्मेदारी मानते थे। सांस्कृतिक नवीनीकरण प्रत्यूष ओंटा ने राणा शासन के बाद उभरते बौद्धिक और साहित्यिक सृजन का अध्ययन किया। नेपाल सांस्कृतिक परिषद ने इतिहास और संस्कृति पर लेखों वाली पत्रिका प्रकाशित की, जिसका उद्देश्य राष्ट्रवाद को ऐतिहासिक गौरव से जोड़ना था। पत्रिका के संपादकीय में लिखा गया था- “देश के संचित प्राचीन ज्ञान से परिचित हुए बिना राष्ट्र पर गर्व संभव नहीं।” ओंटा ने परिषद से जुड़े बुद्धिजीवियों की रचनात्मकता की सराहना की, लेकिन यह भी बताया कि वे लगभग सभी उच्च जाति के पुरुष थे। उनके लिए संस्कृति, आर्थिक प्रगति का साधन थी। कला और साहित्य को सीधे विकास की परियोजनाओं से जोड़ा गया। विश्वविद्यालय और आधुनिक शिक्षा लोकरंजन परजुली का निबंध नेपाल के पहले आधुनिक विश्वविद्यालय त्रिभुवन विश्वविद्यालय की स्थापना पर है। कुछ लोग इसे पटना विश्वविद्यालय की तर्ज पर बनाना चाहते थे, लेकिन एक दूरदर्शी शिक्षाविद ने चेतावनी दी कि “अंधी नकल से नेपाल अपने लिए नुकसान उठाएगा, क्योंकि भारतीय विश्वविद्यालय स्वयं अनेक कमियों से जूझ रहे हैं।” अन्य पहलू पुस्तक के अन्य निबंध भूमि सुधार, अमेरिकी सहायता और काठमांडू में विदेशी पर्यटकों के लिए होटल चलाने वाले रूसी उद्यमी के बारे में है। सभी निबंध गहन शोध, भाषा और विभिन्न स्रोतों पर आधारित हैं। इस किताब ने मुझे नेपाल के बारे में गहरी समझ दी। मुझे लगता है कि 1950 का दशक भारत के लिए भी निर्णायक रहा होगा। आजादी के बाद कोलकाता, दिल्ली, मुंबई और बंगलूरू के कॉफी हाउस भी ज्ञान के केंद्र बने। इन कैफे पर शोध एक सार्थक अभ्यास होगा। नेपाली पत्रिकाओं पर ओंटा का कार्य यह सोचने को प्रेरित करता है कि इकोनॉमिक वीकली (बाद में इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली) जैसी भारतीय पत्रिका का इतिहास स्वतंत्र भारत के बौद्धिक उदय को समझने में कितना महत्वपूर्ण हो सकता है। त्रिभुवन विश्वविद्यालय पर लिखे निबंध ने यह प्रश्न उठाया है कि आईआईटी की स्थापना और उनके प्रभाव पर अब तक कोई गहन शोध क्यों नहीं हुआ। इसी तरह काठमांडू के रॉयल होटल पर लिखा निबंध भारत की होटल शृंखलाओं- ताज और ओबेरॉय के उद्भव पर गंभीर अध्ययन की प्रेरणा देता है। पड़ोस से सीखने की जरूरत एक वर्ष पहले द टेलीग्राफ में मैंने लिखा था कि भारतीय शासकों को नेपाल और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों के प्रति अहंकार और दया का भाव छोड़ना चाहिए। नेपाल इन द लॉन्ग 1950 पढ़ने के बाद इस विचार में नया आयाम जुड़ता है- अपने पड़ोसियों को समझना, उनके अनुभवों से सीखना भारत और भारतीयों के लिए उपयोगी है। इससे भले ही तत्काल आर्थिक या कूटनीतिक लाभ न मिले, पर समाज और राजनीति की गहरी समझ बन सकती है।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Sep 07, 2025, 08:29 IST
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