मातृभाषा दिवस: भाषाई अस्मिता संस्कृति बचाती है, आकर्षण के कारण भाषाई मीडिया व समाचार पत्रों की संख्या भी बढ़ी
विगत वर्ष 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर असम के डिब्रूगढ़ स्थित एक कार्यालय में आयोजित अपनी मातृभाषा में लिखित अभिव्यक्ति प्रतियोगिता में जब वहां के कर्मचारियों से उनकी मातृभाषा में लिखने को कहा गया, तो आई एम वैरी पुअर इन हिंदी वाली प्रसिद्ध कहावत मातृभाषाओं पर भी लागू होती नजर आई। अधिकांश कर्मचारियों ने यह कहा कि उन्हें अपनी मातृभाषा में कुछ लिखे तो अरसा बीत गया है। जब से नौकरी लगी है, तब से कार्यालय में अधिकांशत: लिखित कार्य अंग्रेजी तथा मौखिक वार्ता हिंदी में ही होती है। अपने समुदाय के लोगों से हम मातृभाषा में बात अवश्य कर लेते हैं, परंतु लिखना तो लगभग छूट ही गया है। जब घर-परिवार से लेकर बाजार और कार्यालय तक हर जगह अंग्रेजी आैर हिंदी का ही बोलबाला है, तो मातृभाषा में लिखित अभिव्यक्ति कहां संभव हो पाएगी! कोई शक नहीं कि विगत कुछ वर्षों से लोगों में अपनी मातृभाषा के प्रति आकर्षण बढ़ा है और इसलिए भाषाई मीडिया एवं समाचार पत्रों की संख्या तेजी से बढ़ी है। लोकिन क्या सिर्फ इसी से मातृभाषाएं बच पाएंगी विश्व के प्रसिद्ध भाषाविदों द्वारा किसी भी भाषा की जीवंतता मापने हेतु कुछ कसौटियां निर्धारित की गई हैं, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक उस भाषा का अंतरण, उस भाषा में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में होने वाले कार्य, उस भाषा द्वारा नई तकनीक को अपनाना, भाषा के विविध रूपों का दस्तावेजीकरण तथा उस भाषा के बारे में महत्वपूर्ण संस्थाओं की नीतियां शामिल हैं। यदि हम इन कसौटियों पर भारतीय भाषाओं को परखेंगे, तो स्थिति स्वत: स्पष्ट हो जाएगी कि भारतीय मातृभाषाओं की वर्तमान स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। हालांकि, दुनिया भर में कमोबेश अधिकांश मातृभाषाओं की स्थिति यही है। यूनेस्को के अनुसार, विश्व में अभी लगभग 7000 भाषाएं बोली जाती हैं, परंतु बड़ी संख्या में भाषाओं के विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। किसी भी एक भाषा के विलुप्त होने से वह अपने साथ संबंधित समुदाय की संपूर्ण संस्कृति एवं बौद्धिक विरासत भी ले जाती है। भारत में लगभग 550 आदिवासी समुदायों की अपनी-अपनी बोलियां हैं, परंतु इनमें से कई बोलियां विलुप्ति के कगार पर हैं, क्योंकि इन्हें बोलने वाले सिर्फ हजारों में ही बचे हैं। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत की 197 भाषाएं संकटग्रस्त श्रेणी में हैं। इनमें से 81 भाषाएं संकटग्रस्त, 63 भाषाएं लुप्तप्राय, छह खतरे में तथा 42 भाषाओं पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है तथा पांच भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं। छत्तीसगढ़ी को छत्तीसगढ़ की राजभाषा का दर्जा देने के बाद भी वहां के लोग इसके भविष्य के प्रति चिंतित हैं। हिंदी भाषी राज्यों में बोली जाने वाली मातृभाषाओं की स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वहां के लोगों ने अपनी मातृभाषाओं के स्थान पर हिंदी को ही मातृभाषा बताना शुरू कर दिया है। बिहार और पूर्वांचल इलाके में करोड़ों लोगों द्वारा बोली जानेवाली भाषा भोजपुरी सिर्फ गांव-देहात में ही बोली जानेवाली भाषा बन गई है। वहां के शहरी एवं अाप्रवासी परिवार अपने बच्चों को भोजपुरी के स्थान पर हिंदी बोलने के लिए बाध्य करते हैं। यही हाल राजस्थान, मध्य प्रदेश व अन्य उत्तर भारतीय राज्यों का है, जहां हिंदी तेजी से मातृभाषाओं का स्थान लेती जा रही है। हालांकि, मातृभाषाओं के प्रति बढ़ती अरुचि के पीछे स्थानीय भाषा के बजाय बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने को वरीयता देना भी है। यदि भाषाई अस्मिता ही सीखनी है, तो इस्राइली लोगों से सीखनी चाहिए, जिन्होंने 2,000 साल से मृत पड़ी हिब्रू भाषा को न सिर्फ जीवित किया, बल्कि आज उन्होंने उसे वैज्ञानिक शोध, नवाचार और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान व निर्माण की श्रेष्ठतम वैश्विक भाषाओं में से एक बना दिया है। सिर्फ अपनी भाषा के बल पर मात्र 40 लाख की जनसंख्या वाला देश इस्राइल विज्ञान के दर्जनों नोबेल पुरस्कार जीत चुका है, जबकि हम आज भी अंग्रेजी के पिछलग्गू बने हुए हैं। राहत की बात यह है कि महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारतीय, पूर्वी तथा पूर्वोत्तर राज्यों में स्थानीय भाषाओं में साइन बोर्ड, बैनर आदि प्रदर्शित करना किसी भी संस्थान के लिए अनिवार्य है, परंतु इन राज्यों में भाषाई अस्मिता के नाम पर अंग्रेजी को हिंदी के ऊपर वरीयता दी जाती है। हालांकि, यह व्यवस्था भी सिर्फ बड़े संस्थानों की नाम पट्टिकाओं तक ही सीमित है। हिंदी भाषी राज्यों में तो यह अनिवार्यता भी नहीं दिखती। एक तरह से सरकार, प्रशासन और संस्थाएं स्थानीय लोगों को मातृभाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी और हिंदी लिखने, समझने और बोलने के लिए बाध्य करती हैं।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Feb 21, 2025, 05:46 IST
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