मुंबई हमला और अनसुलझी कड़ियां: राणा के खुलासे खाली जगहों को भरने में अहम साबित होंगे, कई जवाब मिलने की उम्मीद

मुंबई में 26 नवंबर, 2008 को हुए आतंकवादी हमले में वांछित तहव्वुर हुसैन राणा आखिरकार भारत पहुंच ही गया है, जहां उससे इन दिनों सघन पूछताछ चल रही है। वैसे तो, राणा के दिल्ली पहुंचने का मार्ग फरवरी में ही खुल गया था, जब प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने उसके प्रत्यर्पण की घोषणा की थी। इस हमले में 18 सुरक्षाकर्मियों सहित 166 लोग मारे गए थे और 300 से अधिक घायल हुए थे। दरअसल, इस आतंकवादी हमले के तुरंत बाद की कहानी में कई कड़ियां गायब थीं। ऐसा समझा जा रहा है कि राणा से पूछताछ में मिली जानकारियों से ये कड़ियां जुड़ सकेंगी। उदाहरण के लिए, 23 फरवरी, 2009 को काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस में अमेरिकी फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआई) के तत्कालीन निदेशक रॉबर्ट एस मुलर के लंबे संबोधन में हमले के तुरंत बाद अमेरिका द्वारा दिए गए सहयोग का विवरण तो सामने आया, लेकिन इसमें पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय साजिश पर कोई चर्चा नहीं हुई। इस साजिश का खुलासा बहुत बाद में प्रोपब्लिका के सेबेस्टियन रोटेला और अमेरिकी विश्वविद्यालय के स्टीफन टैंकेल ने अमेरिकी अदालत में राणा और डेविड कोलमैन हेडली पर मुकदमे के दौरान किया। दूसरे, 9/11 के बाद गठित आतंकवादी हमलों पर राष्ट्रीय आयोग के विपरीत, 26/11 के बाद दिवंगत राम प्रधान की अध्यक्षता में महाराष्ट्र सरकार द्वारा गठित उच्च स्तरीय दो सदस्यीय समिति को आतंकवादी हमले की जांच करने का अधिकार नहीं था। समिति को केवल इस बात की व्यवस्थागत जांच करनी थी कि पुलिस हमले से सफलतापूर्वक क्यों नहीं निपट सकी। दिलचस्प बात तो यह है कि इस तरह के खूंखार हमले-जिसे कत्लेआम कहना ज्यादा मुनासिब होगा-की जांच महज राज्य पुलिस के जिम्मे छोड़ दी गई। पता नहीं केंद्र में उस वक्त बैठे हुक्मरानों की इस बात के पीछे क्या मंशा रही होगी! हालांकि, 1993 और 1994 में अमेरिकी वार्ताकारों के साथ आतंकवाद पर भारतीय खुफिया टीमों ने वार्षिक चर्चा की थी, लेकिन इन हमलों के बारे में कुछ और जानने के लिए भारत के विदेशी संपर्कों का उपयोग करने के लिए 26/11 समिति को कोई मंजूरी नहीं दी गई थी। इसे मुंबई पुलिस पर छोड़ दिया गया था, जिसके पास अपने निष्कर्षों तक पहुंचने के लिए कोई विदेशी संपर्क नहीं थे। इस उच्च स्तरीय समिति के दोनों सदस्य इस बात पर हक्के-बक्के रह गए कि कैसे नरीमन हाउस के नाम से जानी जाने वाली एक नामालूम-सी जगह को 26/11 की रात को हथियारों से लैस आतंकवादियों ने पहले निशाने के रूप में चुना था। स्थानीय कोलाबा पुलिस से पूछताछ करने पर पता चला कि यह एक ऐसी जगह थी, जहां अज्ञात विदेशी, ज्यादातर इस्राइल के हीरा व्यापारी, एक ऐसे रेबाई (यहूदी) के घर ठहरते थे, जिसे बहुत कम लोग जानते थे। फिर, उक्त समिति के दोनों सदस्यों ने विदेशियों के पंजीकरण के प्रभारी उपायुक्त स्तर के एक वरिष्ठ अधिकारी से पूछताछ की, जिन्होंने उन्हें बताया कि स्थानीय इस्राइली वाणिज्य दूतावास ने भी नरीमन हाउस (चबाड हाउस) को अपनी सूची में शामिल करने के लिए प्राथमिकता वाले आतंकी लक्ष्य के रूप में नहीं माना था। यह सूची नियमित रूप से यहूदी छुट्टियों पर विशेष सुरक्षा के लिए केंद्र और महाराष्ट्र सरकार को भेजी जाती है। किसी भी अग्रिम खुफिया अलर्ट में नरीमन हाउस का उल्लेख नहीं था। इस्राइली दूतावास से भारत सरकार को हुए पत्राचार में भी आतंकवादियों के निशाने के रूप में इसका कोई जिक्र नहीं था। इसके महत्व का अंदाजा नवंबर, 2009 में होनोलूलू में एशिया-पेसिफिक होमलैंड सुरक्षा शिखर सम्मेलन के दौरान हुआ। इस सम्मेलन में भाग लेने वालों में ज्यादातर विदेश विभाग, रक्षा, वायु सेना, नौसेना, मरीन, होमलैंड सुरक्षा और हवाई राज्य के अमेरिकी सरकारी अधिकारी शामिल थे। उस बैठक के दौरान, अमेरिकी वायु सेना के एक अधिकारी ने दुनिया भर में चबाड हाउसों के महत्व पर प्रकाश डाला। बाद में पता चला कि हेडली के आईएसआई हैंडलर, जिसकी पहचान मेजर इकबाल के रूप में की गई है, ने उसे भारत में अपने पिछले पांच टोही मिशनों पर तैनात किया था। मेजर इकबाल के अनुसार, चबाड हाउस पहला निशाना इसलिए था, क्योंकि यह इस्राइल की खुफिया एजेंसी मोसाद का मुखौटा था। मोसाद की गुप्तचरीय गतिविधियां चबाड हाउस से ही चलती हैं। भारत हेडली को तो प्रत्यर्पित करवा नहीं पाया, हालांकि उसने फरवरी 2016 में अबू जुंदाल के मुकदमे के दौरान ऑनलाइन गवाही दी थी। राणा की उपस्थिति महत्वपूर्ण होने के और भी कई कारण हैं। पहला कारण 25 फरवरी, 2009 को दाखिल मुंबई क्राइम ब्रांच की अंतिम चार्जशीट में अपने अदालती रिकॉर्ड को सही करना है, जिसमें उल्लेख किया गया था कि भारतीय नागरिक फहीम अंसारी और सबाहुद्दीन शेख ने जनवरी 2008 में लश्कर-ए-तैयबा के कर्ता-धर्ताओं को मुंबई के ठिकानों के मामूली नक्शे सौंपे थे। बाद की जांच और पूछताछ से पता चला था कि वह अमेरिकी नागरिक डेविड कोलमैन हेडली था, जिसने सारी जगहों का वीडियो और विजुअल डाटा मुहैया करवाया था। मुंबई के इन ठिकानों को लश्कर-ए-तैयबा द्वारा खरीदे गए पांच गार्मिन रिनो जीपीएस सेटों में डाला गया और ये सेट उन दसों आतंकवादियों को दे दिए गए। यही वजह थी कि उन्हें बिल्कुल सही पता था कि उन्हें कहां जाना है। बहरहाल, 3 मई, 2010 को फहीम अंसारी और सबाहुद्दीन शेख को बरी कर दिया गया। दूसरा कारण यह है कि हेडली की पूरी गतिविधियां, जो अमेरिकी शिकागो जिला न्यायालय के न्यायाधीश हैरी लेनेनवेबर द्वारा प्रकाश में लाई गई थीं, उन्हें हमारे न्यायिक रिकॉर्ड में नहीं रखा गया है। अमेरिकी न्यायिक विभाग के शब्दों में, ये भारत में सार्वजनिक स्थानों पर बमबारी करने; भारत में लोगों की हत्या करने, विदेशियों की हत्या में सहायता करने, भारत में आतंकवाद को भौतिक समर्थन प्रदान करने और लश्कर को समर्थन देने की साजिश थी, इसलिए, राणा के खुलासे और मुकदमा इन खाली जगहों को भरने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Apr 16, 2025, 05:48 IST
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