जानना जरूरी है: कुछ कामों में विलंब भी हितकारी... पिता की अवहेलना भी नहीं हुई और मां की रक्षा हो गई; जानिए कथा
पूर्वकाल में महर्षि अंगिरा के कुल में एक प्रसिद्ध ब्राह्मण हुए। वह बहुत विद्वान थे, परंतु प्रत्येक कार्य में बहुत विलंब करते थे। उनके पिता का नाम महर्षि गौतम था। गौतम के पुत्र सब कार्य भली-भांति सोच-विचार कर बहुत देर के बाद प्रारंभ करते थे। चिरकाल तक सोच-विचार करते रहने के कारण उनका नाम चिरकारी पड़ गया। एक बार चिरकारी की माता कौशिकी नदी के तट पर स्त्रियों से घिरे राजा बलि को देखती रहीं; केवल इसी अपराधवश गौतम ने चिरकारी को आदेश दिया, तुम अपनी माता को मार डालो। चिरकारी ने बड़ी देर में उत्तर दिया, अच्छा, ऐसा ही करूंगा। परंतु वह स्वभाव से ही चिरकारी थे, इसलिए चिरकाल तक इस विषय पर सोच-विचार करते रहे। उन्होंने सोचा, मैं पिता की आज्ञा का पालन कैसे करूं अपनी माता को कैसे मारूं पिता के आज्ञा-पालनरूपी धर्म का बहाना लेकर इस मातृ-हत्यारूपी अधर्म में कैसे डूब जाऊं पिता की आज्ञा का पालन करना सबसे बड़ा धर्म है, किंतु माता की रक्षा करना भी तो मेरा ही धर्म है। पुत्र, माता और पिता, दोनों के अधीन है। माता की हत्या करके कौन सुखी रह सकता है पिता की भी अवहेलना करके कौन प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है पुत्र के लिए उचित है कि पिता की अवहेलना न करे, पर माता की रक्षा भी करे। पिता की आज्ञा का पालन करने से पुत्र के पूर्वकृत पातक धुल जाते हैं। पिता स्वर्ग है, धर्म है और सर्वश्रेष्ठ तपस्या है। पिता प्रसन्न, तो देवता प्रसन्न। पिता का पद बहुत ऊंचा है। अब मैं माता के विषय में विचार करूंगा। मुझे यह पंचभूतों का समुदाय रूप शरीर प्राप्त हुआ है, इसका कारण मेरी माता है। जिसकी माता जीवित है, वह सनाथ है। पुत्र समर्थ हो या असमर्थ, दुर्बल हो या पुष्ट-माता उसका पालन करती है। माता के समान कोई तीर्थ, कोई गति नहीं है, माता के समान कोई रक्षक नहीं है। गर्भ में धारण करने के कारण माता धात्री है, जन्म देने वाली होने से जननी है, अंगों की वृद्धि करने के कारण अंबा है, वीर पुत्र का प्रसव करने के कारण वीरप्रसू कहलाती है, शिशु की शुश्रूषा करने से वह शक्ति कही गई है तथा सदा सम्मान देने के कारण उसे माता कहते हैं। मुनिजन, पिता को देवता समझते हैं, परंतु माता की बराबरी कोई नहीं कर सकता। पतित होने पर गुरुजन भी त्याग देने योग्य माने गए हैं; परंतु माता किसी प्रकार भी त्याज्य नहीं है। चिरकारी होने के कारण वे इन्हीं बातों पर देर तक विचार करते रहे, परंतु उनकी चिंता का अंत नहीं हुआ। इस बीच गौतम को अपनी भूल का एहसास हुआ। वह चिंता करने लगे-ओह! पतिव्रता नारी का वध करके मैं पाप के समुद्र में डूब गया हूं। मैंने चिरकारी को अपनी पत्नी को मार देने की आज्ञा दे दी। यदि वह सचमुच चिरकारी है, तो अधिक देर तक सोच-विचार करने के कारण वह मुझे पाप से बचा सकता है। यह सोचकर गौतम, अपने पुत्र चिरकारी के पास आए। वहां उन्होंने चिरकारी को माता के पास बैठे देखा। चिरकारी पिता को अपने समीप आया देख दुखी हुए और उन्होंने हथियार फेंककर पिता के चरणों में मस्तक रख दिया। पत्नी को जीवित पाकर गौतम बहुत प्रसन्न हुए। पिता ने पुत्र का मस्तक चूमा और उसे छाती से लगाते हुए कहा, बेटा! तुम चिरंजीवी रहो। तुम्हारा कल्याण हो। तुमने चिरकाल तक विलंब करके जो कार्य किया है, उसके कारण तुमने मुझे इस घोर दुख से बचा लिया है। इसके बाद गौतम ने उपदेश देते हुए कहा, चिरकाल तक विचार करके मंत्रणा स्थिर करना उचित होता है। राग, दर्प, अभिमान, द्रोह, पापकर्म तथा अप्रिय कर्तव्य में चिरकारी (विलंब करने वाला) प्रशंसा का पात्र है। चिरकाल तक विनयशील रहने से व्यक्ति आदर का पात्र बनता है। धर्मयुक्त वचन को देर तक सुनने और उस पर चिंतन करने से मनुष्य चिरकाल तक तिरस्कार का पात्र नहीं बनता। परंतु, धर्म के कार्य में विलंब नहीं करना चाहिए। शत्रु के हाथ में हथियार देखकर आत्मरक्षा करने में देर नहीं लगानी चाहिए। सुपात्र व्यक्ति का सम्मान करने में विलंब नहीं करना चाहिए। साधु पुरुषों का स्वागत-सत्कार करने में भी देर नहीं करनी चाहिए।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Sep 07, 2025, 08:03 IST
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