स्वतंत्रता दिवस: ब्रिगेडियर एस के चौहान की 81 वर्षीय मां की लिखी भावुक कविता
आज़ादी की ख़ातिर जो आज़ादी की ख़ातिर हंसकर फांसी पर झूल गए हम धीरे-धीरे उनके बलिदानों को भूल गए जो आज़ादी की ख़ातिर हंसकर फांसी पर झूल गए गिनी-चुनी तारीखों पर हम उनको याद किया करते हैं कुछ फूल चढ़ाकर, कुछ भाषण देकर एक रस्म निभा दिया करते हैं हम धीरे-धीरे उनके आदर्शों पर चलना भूल गए जो आज़ादी की ख़ातिर हंसकर फांसी पर झूल गए वो लोग भी किस जीवट के थे लाठी खाई, कोड़े खाए, जेल गए फिर भी अपने मकसद पर डटे रहे अंतिक सासों तक 'इन्क़लाब ज़िंदाबाद' दोहराते रहे आज़ादी की ख़ातिर जिस्मानी चोटों को भूल गए और हंसकर फांसी पर झूल गए हम क्यूं उनके बलिदानों को भूल गए जो आज़ादी की ख़ातिर हंसकर फांसी पर झूल गए उनका बलिदान सफल हुआ, उनका सपना साकार हुआ तोड़ गुलामी की जंजीरें, पंद्रह अगस्त सन सैंतालिस को अपना भारत आज़ाद हुआ अंग्रेज़ यहां से चले गए पर हम धीरे-धीरे कुछ ऐसे अंग्रेज़ियत में मद-मस्त हुए कि अपनी संस्कृति को भूल गए उनके सपनों के भारत को भूल गए, जो आज़ादी की ख़ातिर हंसकर फांसी पर झूल गए हमको आज़ाद हुए साल अठत्तर हो गए अब आज कसम हम खाएंगे, हर घर में भारतीयता की अलख जगाएंगे उनके सपनों का देश बनाएंगे, जो आज़ादी की ख़ातिर हंसकर फांसी पर झूल गए हम क्यूं उनके आदर्शों पर चलना भूल गए, जो आज़ादी की ख़ातिर हंसकर फांसी पर झूल गए
- Source: www.amarujala.com
- Published: Aug 10, 2025, 21:49 IST
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