वैश्विक अनिश्चितता और परिसीमन पर सियासत: विरोध की आड़ में उत्तर और दक्षिण के बीच खाई... राष्ट्रीय सहमति जरूरी
एक कवि ने कहा है कि पूरी दुनिया एक रंगमंच है और सारी राजनीति अनिवार्य रूप से एक लाइव ऑडिशन है। सार्वजनिक क्षेत्र में की जाने वाली बयानबाजी का उद्देश्य लोगों का ध्यान और वफादारी हासिल करना है। नेता पार्टी के भीतर और/या संवेदनशील अनुयायियों के लिए अपनी भूमिका की खातिर बयान देते हैं। पार्टियां चुनावी बाजार में व्यापक हिस्सेदारी के लिए पटकथाएं लिखती हैं। परिसीमन की प्रक्रिया को लेकर हो रही बहस इसी पैटर्न को दर्शाती है। यह मुद्दा समावेशन और लोगों के प्रतिनिधित्व का है, लेकिन परिदृश्य में जो तस्वीरें दिख रही हैं, वे एक पक्षीय, पक्षपातपूर्ण उत्तर-दक्षिण विभाजन को दर्शाती हैं और मतदाता केवल राष्ट्रवाद एवं अलगाववाद के द्विआधारी तर्कों के बीच उलझे रहते हैं। परिसीमन निर्वाचित प्रतिनिधियों और जनसंख्या के आदर्श अनुपात को दर्शाने के लिए निर्वाचन क्षेत्रों को फिर से परिभाषित और पुनर्गठित करने की प्रक्रिया है। भारत की शासन संरचना (सांसदों, विधायकों और स्थानीय निकायों में प्रतिनिधियों की संख्या) 1971 की जनगणना के आंकड़ों के साथ स्थिर कर दी गई है और 2026 में नवीनतम जनगणना के आधार पर इसकी समीक्षा की जाएगी। इस सप्ताहांत, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के निमंत्रण पर मुख्यमंत्रियों और विपक्षी नेताओं ने निष्पक्ष प्रतिनिधित्व के लिए एक संयुक्त कार्रवाई समिति बनाने की खातिर चेन्नई में बैठक की। 1.4 अरब की वर्तमान आबादी को देखते हुए अनुमान है कि परिसीमन से लोकसभा में सीटों की संख्या 753 तक पहुंच जाएगी, जिसमें उत्तर प्रदेश में सीटों की संख्या 80 से बढ़कर 143 और बिहार में 40 से बढ़कर 79 हो जाएगी। डर यह है कि अधिक आबादी वाले उत्तर को लाभ मिलेगा, और जनसंख्या नियंत्रण में सफलता पाने वाले दक्षिण को घाटा होगा। इन चिंताओं के पीछे राष्ट्रीय शक्ति सांचे में संख्या कम होने का डर है। इस बीच, इस लोकतंत्र में संप्रभु (मतदाता) मूकदर्शक बन गए हैं। सवाल यह है कि क्या भारत को और अधिक सांसदों की आवश्यकता है। अधिक सांसदों के कारण बेहतर प्रतिनिधित्व और बेहतर परिणाम होता है, इसकी पड़ताल की जानी चाहिए। तेलंगाना के मल्काजगिरी में सबसे अधिक मतदाता हैं (लगभग 30 लाख), यहां प्रति व्यक्ति आय 2.95 लाख रुपये है, जो राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है। इसकी तुलना किसी भी बड़े राज्य में बेहतर जनसंख्या-सांसद अनुपात वाले निर्वाचन क्षेत्र से करें। साफ है कि समृद्धि का वादा राज्य में शासन की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। संविधान की अनुसूची सात में शासन की संरचना देखें, तो नागरिकों से सरोकार रखने वाला हर मुद्दा काफी हद तक राज्य सरकारों के अधीन है। सर्वाधिक आवंटन वाले सबसे बड़े मंत्रालय सभी राज्य के विषय हैं। स्वर्गीय एन टी रामाराव के शब्दों में कहें, तो देश का हर इंच राज्य द्वारा प्रशासित है और केंद्र एक वैचारिक अमूर्त संस्था है। ऐसे में, सवाल यह है कि यह प्रतिनिधित्व संसद में होना चाहिए या राज्यों में। स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा, बिजली और पानी जैसी बुनियादी सेवाएं देने की शक्ति राज्यों के पास है। अब जरा सार्वजनिक व्यय के परिदृश्य पर विचार करें। वर्ष 2023-24 में, राज्य सरकारों ने 57 लाख करोड़ रुपये और केंद्र ने 45 लाख करोड़ रुपये खर्च किए। भूमि और श्रम सुधार (रोजगार सृजन के लिए महत्वपूर्ण) राज्य सरकारों के पास लंबित हैं। 69,233 अनुपालन उद्यमों का बोझ राज्यों के अधिकार क्षेत्र में है। एकात्मक और संघीय प्रणालियों के वैश्विक अनुभव की बात करें, तो अमेरिकी प्रतिनिधि सभा एक सदी से भी ज्यादा समय से 435 सदस्यों पर स्थिर है। फ्रांस में सांसदों की संख्या 1986 से 577 रही है। ब्रिटेन की संसद में 1796 में 658 सांसद थे और 1980 के दशक से 650 सीटें हैं। प्रतिनिधित्व और बेहतर परिणाम के बीच का संबंध बहुत कम रैखिक है। पिछले हफ्ते मैंने जानकार सीईओ के एक समूह से पूछा कि क्या उनमें से किसी ने अपने सांसद को देखा है। सिर्फ एक ने हाथ ऊपर उठाया। पुणे में, लगातार सांसदों ने बानेर जैसे नए क्षेत्रों की उपेक्षा की है और शहर को अपना हवाई अड्डा दिलाने में 20 साल तक विफल रहे हैं। अभी मौजूद 543 सांसदों के समूह का प्रदर्शन कैसा रहा है-यह सवाल मौजूं है। लोकसभा में आखिरी बार कब इस पर बहस हुई थी कि अदालतों में पांच करोड़ से ज्यादा मामले क्यों लंबित हैं या फिर केंद्र सरकार 7.2 लाख मामलों के साथ सबसे बड़ी मुकदमेबाज क्यों है जनगणना कब होगी-को लेकर अब तक स्पष्टता क्यों नहीं है या फिर 3,894 जनगणना शहर क्यों न तो शहरी हैं और न ही ग्रामीण निश्चित रूप से भारतीयों को बेहतर राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और इसे तीन चरणों में तैयार किया जा सकता है। सबसे पहले, शासन के तीसरे स्तर पर ढांचा, निधि और कार्य (वित्त आयोग ऐसा कर सकता है) को स्थानांतरित करना। भारतीय शहरों में करदाताओं के सामने आवास, पानी की कमी, परिवहन सुविधा से लेकर खराब वायु गुणवत्ता तक की समस्या है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में एक लाख से अधिक गांवों को पंचायती शासन के लिए संसाधनों के हस्तांतरण की जरूरत है और 60 से अधिक शहर और कस्बे ऐसे हैं, जिन्हें विकास के लिए धन की सख्त जरूरत है। अंतिम पंक्ति तक शासन का वादा, जो तीन दशकों से धराशायी है, को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। दूसरे चरण में, राज्यों में विधायकों की संख्या में विस्तार किया जाए, ताकि जवाबदेही में सुधार हो सके। और अंत में, महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण के वादे को पूरा करने के लिए सांसदों की संख्या में एक समान 33 प्रतिशत की वृद्धि की जाए। राजनीति और नीति में संदर्भ महत्वपूर्ण होते हैं। भारत का आर्थिक विकास दक्षिण और पश्चिम के राज्यों द्वारा संचालित है। वास्तव में, 2023-24 में भारत के जीडीपी का 31 प्रतिशत दक्षिणी राज्यों से आया है। विशेष रूप से वैश्विक अनिश्चितताओं और चुनौतियों के मद्देनजर यह महत्वपूर्ण है कि अल्पकालिक राजनीतिक लाभ के लिए शक्ति संतुलन को बिगाड़ा न जाए। इसके लिए राष्ट्रीय सहमति की आवश्यकता है, गुटीय टकराव की नहीं।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Mar 24, 2025, 05:20 IST
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