Supreme Court: कोर्ट ने पूछा- अगर राज्यपाल अपने कर्तव्य में विफल हो जाएं तो क्या हम चुप बैठें? फैसला सुरक्षित
सुप्रीम कोर्ट ने खुद को संविधान का संरक्ष बताते हुए गुरुवार को पूछा कि अगर राज्यपाल जैसे कोई सांविधानिक पदाधिकारी अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता है, तो क्या अदालत चुप बैठ सकती हैशीर्ष कोर्ट ने यह बात राष्ट्रपति की ओर से भेजे गए उस संदर्भ पर कही, जिसमें पूछा गया था कि क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति किसी विधेयक को मंजूरी देने में अनिश्चितकाल तक देरी कर सकते हैं और क्या अदालत उनके लिए कोई समयसीमा तय कर सता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट में दस दिन तक सुनवाई चली, जिसमें संविधान पीठ की अध्यक्षता चीफ जस्टिस (सीजेआई) बीआर गवई ने की। उनके साथ जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर शामिल ते। इस दौरान अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, गोपाल सुब्रमण्यम, अरविंद दातार जैसे कई वरिष्ठ वीकोलों की दलीलें सुनी गईं। ये भी पढ़ें:'उच्च न्यायालयों में काफी आपराधिक अपीलें लंबित..', शीर्ष कोर्ट ने छह दोषियों की सजा पर रोक लगाई मामला भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 से जुड़ा है, जिसमें पूछा गया है कि क्या सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयकों पर मंजूरी देने के लिए समयसीमा तय करने का आदेश दे सकता है सुनवाई के अंतिम दिन जब सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने संविधान के मूल ढांचे के तहत शक्ति के बंटवारे की बात की और कहा कि कोर्ट को राज्यपाल के विवेकाधीन अधिकारों में दखल नहीं देना चाहिए, तो कोर्ट ने उन्हें टोका।सीजेआई ने कहा, चाहे कोई कितना ऊंचा पदा हो, लेकिन अगर लोकतंत्र का कोई एक स्तंभ अपने कर्तव्य को निभाने में विफल रहता है, तो क्या संविधान का संरक्षक (सुप्रीम कोर्ट) चुप बैठा रहेगा तुषार मेहता ने जवाब में कहा कि केवल न्यायपालिका ही नहीं, कार्यपालिका और विधायिका भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों की संरक्षक हैं। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि राज्यपाल को उनके सांविधानिक अधिकारों के तहत विवेक के आधार पर निर्णय लेने की अनुमति है और उन पर अदालत की ओर से कोई जबरदस्ती नहीं की जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि संविधान में 'जितना जल्दी हो सके' शब्द लिखा गया है, लेकिन इसका मतलब अनंतकाल तक प्रतीक्षा नहीं हो सकता। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि कोर्ट राज्यपाल को समयसीमा में बांध दे। ये भी पढ़ें:एल्गार परिषद केस:रमेश अस्थायी जमानत पर रिहा, जेल प्रशासन ने मांगी माफी; कोर्ट से आदेश मिलने के बाद हुई देरी तुषार मेहता ने यह भी उदाहरण दिया कि अगर किसी राज्य की विधानसभा यह कानून बना दे कि वह अब भारत का हिस्सा नहीं रहेगा, तो राज्यपाल को ऐसा विधेयक मंजूर नहीं करना चाहिए। यानी हर स्थिति में राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह माननी जरूरी नहीं होती है। मेहता ने बताया कि 1970 से अब तक राज्य विधानसभाओं की ओर से पारित कुल 17,150 विधेयकों में से 90 फीसदी को एक महीने के भीतर राज्यपाल की मंजूरी मिल गई। केवल 20 मामलों में मंजूरी रोकी गई। उन्होंने कहा कि संविधान समयसीमा न होने का मतलब यह नहीं है कि वहां कोई कानूनी खालीपन है। यह सोच-समझकर चुने गए शब्द हैं। कोर्ट अब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की ओर से भेजे गए 14 सवालों पर विचार करेगा। इनमें यह भी शामिल है कि क्या राज्यपाल या राष्ट्रपति किसी विधेयक की मंजूरी अनिश्चितकाल तक रोक सकते हैं और क्या कोर्ट उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए समयसीमा तय कर सकता है। मामला अनुच्छेद 200 से जुड़ा है, जो राज्यपाल को चार विकल्प देता है- विधेयक को मंजूरी देना, खारिज करना, पुनर्विचार के लिए लौटाना या राष्ट्रपति के पास भेजना।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Sep 11, 2025, 17:23 IST
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