सवाल तो पारदर्शिता का है: चुनौतियों से जूझ रही न्यायपालिका, जस्टिस वेंकटचलैय्या की सिफारिश लागू करने का समय...
दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के घर नकदी मिलने का मामला सुर्खियों में है, और इससे न्यायपालिका की साख को भी गहरा झटका लगा है। शायद यही वजह है कि पहली बार देश के प्रधान न्यायाधीश ने इस मामले से संबंधित प्रारंभिक रिपोर्ट और जले हुए नोटों के वीडियो सार्वजनिक किए। भारतीय न्यायपालिका लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जो संविधान और नागरिक अधिकारों की रक्षा करती है। लेकिन हाल के वर्षों में न्यायपालिका में पारदर्शिता, जवाबदेही और भ्रष्टाचार से जुड़े मुद्दों ने इसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए हैं। भारत में जहां न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सर्वोच्च माना गया है, वहीं पारदर्शिता की कमी कई बार संदेह और आलोचना का विषय बनती रही है। न्याय में देरी, न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया की गोपनीयता और न्यायिक अधिकारियों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण न्यायिक सुधार की मांग पिछले कई वर्षों से की जा रही है, लेकिन अब जस्टिस वर्मा प्रकरण के बाद इसकी जरूरत पहले से कहीं अधिक महसूस होने लगी है। वर्तमान में भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली के तहत होती है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश ही नए न्यायाधीशों का चयन करते हैं। इसमें सरकार व जनता की कोई भूमिका नहीं होती, जिससे पारदर्शिता और जवाबदेही पर सवाल उठते हैं। वर्ष 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को असांविधानिक करार दिया, जिससे सुधार की संभावनाओं पर विराम लग गया। न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखते हुए नियुक्ति प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाए जाने की बहस आज भी जारी है। देश भर की अदालतों में पांच करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। मुकदमों के निपटारे में दशकों का समय लग जाता है, जिससे नागरिकों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। न्याय में देरी करना, न्याय से वंचित करना होता है यह सिद्धांत यहां चरितार्थ होता है। लेकिन न्यायपालिका की पारदर्शिता पर सबसे बड़ा प्रश्नचिह्न तब लगता है, जब भ्रष्टाचार के मामले सामने आते हैं। ऐसी घटनाएं न्यायपालिका के भीतर जवाबदेही और निगरानी की जरूरत को उजागर करती हैं। न्यायपालिका जिन चुनौतियों से जूझ रही है, उनके मद्देनजर जस्टिस वेंकटचलैय्या की सिफारिशों को लागू करने का यह सही समय हो सकता है, जिससे नियुक्ति में पारदर्शिता, न्यायिक जवाबदेही और अनुशासन सुनिश्चित हो सकेगा। इसके लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग जैसी संस्था का गठन किया जाना चाहिए, जिसमें न्यायपालिका के साथ-साथ कार्यपालिका और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों की भी भागीदारी हो। न्यायाधीशों के आचरण की निगरानी के लिए न्यायिक परिषद की स्थापना की जानी चाहिए। न्यायाधीशों को अपनी संपत्तियों का सार्वजनिक विवरण देना अनिवार्य तो किया ही जाना चाहिए, इसके साथ, एक स्वतंत्र न्यायिक लोकपाल की नियुक्ति भी होनी चाहिए, जो न्यायपालिका के भीतर भ्रष्टाचार और अनियमितताओं की जांच कर सके। न्यायिक नियुक्तियों और न्यायाधीशों के प्रदर्शन की नियमित समीक्षा होनी चाहिए। इसके अलावा, न्यायालयों में तकनीकी सुधार करने और ई-कोर्ट की स्थापना की जानी चाहिए, ताकि मुकदमों का निपटारा तेजी से हो सके। डिजिटल रिकॉर्ड और ऑनलाइन केस ट्रैकिंग सिस्टम से नागरिकों को अपने मुकदमों की स्थिति जानने में आसानी होगी। सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों की कार्यवाही का लाइव प्रसारण करने से जनता को न्याय प्रक्रिया की पारदर्शिता पर भरोसा होगा। भ्रष्टाचार में लिप्त न्यायाधीशों एवं न्यायिक अधिकारियों पर सख्त दंडात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। पहले भी समय-समय पर भ्रष्टाचार में लिप्त न्यायाधीशों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई की गई है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वी. रामास्वामी पर 1990 के दशक की शुरुआत में सार्वजनिक धन के दुरुपयोग के आरोप लगे। 1993 में संसद में उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया, जो पारित नहीं हो सका। यह पहला मामला था, जब उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश पर महाभियोग प्रस्ताव लाया गया। इससे पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन पर 1984 में 33 लाख रुपये के गबन का आरोप लगा था, जब वह एक मामले में कोर्ट द्वारा नियुक्त रिसीवर थे। राज्यसभा में उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पारित हो गया, लेकिन लोकसभा में चर्चा से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इसके अलावा, सिक्किम उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पीडी दिनाकरन पर भ्रष्टाचार और भूमि अतिक्रमण के गंभीर आरोप लगे। महाभियोग प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया। दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शमित मुखर्जी ने 31 मार्च, 2003 को अपने पद से इस्तीफा दिया। वह दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) भूमि घोटाले में शामिल पाए गए थे। सीबीआई ने 30 अप्रैल, 2003 को उन्हें गिरफ्तार किया था। 5 मई, 2003 को उन्हें चिकित्सकीय आधार पर अंतरिम जमानत मिल गई। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एसएन शुक्ला पर मेडिकल कॉलेजों को अवैध लाभ पहुंचाने के आरोप लगे। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने सीबीआई को उनके खिलाफ मामला दर्ज करने की अनुमति दी, जिसके बाद दिसंबर, 2019 में उनके घर पर छापा मारा गया। इसी तरह, पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश राकेश कुमार ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के खिलाफ टिप्पणी की थी, जिसके बाद एक 11 सदस्यीय पीठ ने उनके सभी मामलों को वापस ले लिया और उनके आदेशों को निलंबित कर दिया। दिल्ली की तीस हजारी अदालत की वरिष्ठ सिविल न्यायाधीश रचना तिवारी लखनपाल को सीबीआई ने रिश्वत लेने के आरोप में गिरफ्तार किया। जांच एजेंसी ने उनके आवास से 94 लाख रुपये की नकदी बरामद करने का दावा किया था। इन स्थितियों में अगर जस्टिस वेंकटचलैय्या की सिफारिशों को लागू किया जाए, ई-कोर्ट्स को बढ़ावा दिया जाए, न्यायिक जवाबदेही को सख्ती से लागू किया जाए और न्यायिक कार्यवाही को अधिक पारदर्शी बनाया जाए, तो न्यायपालिका में जनता का विश्वास और अधिक मजबूत होगा। न्यायपालिका में पारदर्शिता केवल एक नैतिक या कानूनी मुद्दा नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की मजबूती के लिए भी आवश्यक है। न्याय में देरी, नियुक्ति प्रक्रिया की गोपनीयता और भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं को दूर करने के लिए ठोस सुधार जरूरी हैं। न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए इसे अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाने की जरूरत है, क्योंकि सशक्त, पारदर्शी और जवाबदेह न्यायपालिका ही लोकतंत्र की असली गारंटी है।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Mar 26, 2025, 05:54 IST
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