Rajasthan News: अंग्रेजों के जमाने की हुई जेल की चक्की, न्यूनतम से भी कम मजदूरी पर काम कर रहे हैं बंदी
हिंदी सिनेमा के कोर्ट रूम दृश्य में अक्सर दिखाया जाता है कि जज किसी अपराधी को सजा सुनाते हुए बामशक्कत शब्द का इस्तेमाल करते हैं । यानी अपराधी को जेल में चक्की भी पीसनी पड़ेगी। लेकिन राजस्थान के जेलों की ये चक्कियां इस डायलॉग जितनी ही पुरानी हो चुकी हैं। सरकार की रिपोर्ट में इसे लेकर कई कमियां सामने आई हैं। जेल की सजा पाने वाले प्रदेश के कैदियों को जेल की चक्की पीसने में काफी दम लगाना पड़ रहा है। जेलों मे चल रही उद्योगशालाओं में मशीनें काफी पुरानी हो चुकी हैं और इन कैदियों को अकुशल मजदूरों से भी बहुत कम मजदूरी पर काम करना पड़ रहा है। ऐसे में सश्रम कारावास की सजा पाने वाले ये कैदी काम तो कर रहे हैं, लेकिन इस योजना का जैसा फायदा कैदियों और सरकार को मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पा रहा है। राज्य सरकार के मूल्यांकन विभाग ने पिछले दिनों जेलों में चल रही इन उद्योगशालाओं का अध्ययन कर इसी वर्ष जनवरी में इसकी रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कारागृह विभाग द्वारा संचालित उद्योग प्रशिक्षणशालाओं में जेल निर्मित वस्तुओं की उत्पादन लागत अत्यधिक होना, रुचिकर कार्यों का अभाव, दक्ष प्रशिक्षकों की कमी, मशीनी उपकरण अत्यधिक पुराना होना, जेल उद्योगशाला का भवन अत्यंत जर्जर होना, बंदी श्रमिकों को मिल रही मजदूरी का कम होना जैसी दिक्कतें पाई गई हैं। रिपोर्ट में इन कमियों को दूर करने के सुझाव भी दिए गए हैं ताकि इस योजना को बेहतर ढंग से लागू किया जा सके। देश के न्यायालयों ने कैदियों को श्रम उपलब्ध कराने और विभिन्न औद्योगिक कार्यो का प्रशिक्षण प्रदान करने के निर्देश दे रखे हैं ताकि रिहाई के बाद वे इन्हीं कामों को करके समाज में सम्मानजनक जीवन जी सकें और आत्मनिर्भर बनकर अपना परिवार चला सकें । ये काम कराए जाते हैं प्रदेश की दस केन्द्रीय जेलों में इन बंदियो को दरी, निवार, कपड़ा, बुनाई, सिलाई, कारपेन्टरी, होजियरी, लुहारी, फिनाइल, झाड़ू एवं पोंछा, कपड़े धोने व नहाने के साबुन आदि कार्यों में प्रशिक्षित किया जाता है। कपड़ा बुनने के लिए पॉवर चलित मशीनें केन्द्रीय कारागृह जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर और अजमेर में स्थापित हैं, जहां कैदियों के ही कपडे़ बनाए जाते हैं। वहीं महिला बंदी सुधार गृहों में महिला बंदियों द्वारा हस्तशिल्प में मिट्टी के दीपक, पूजा थाली, चूड़ा, कशीदाकारी, मीनाकारी, मसालें, अचार, मोमबत्ती, आसन, बेडशीट, रजाइयां आदि सामग्री/उत्पाद निर्मित किए जा रहे हैं। इनमें होती है बिक्री बंदियों के बनाए जेल उत्पाद सभी सरकारी विभागों, सरकारी संस्थाओं से लेना अनिवार्य है। पहले तो यह भी जरूरी था कि यदि यहां उपलब्ध नहीं हैं तो इनकी एनओसी लेने के बाद ही दूसरी जगह से सामान खरीदा जा सकता था। यह है स्थिति इन कैदियों को दो श्रेणियों कुशल एवं अकुशल में बांटा जाता है। कुशल श्रमिकों को 180 रुपये प्रति दिवस तथा अकुशल श्रमिक को 156 रुपये प्रति दिवस की मजूदरी दी जाती है, जबकि प्रदेश में अकुशल श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी खुद सरकार ने ही 285 रुपए प्रतिदिन तय कर रखी है। यानी इन्हें अकुशल श्रमिकों से भी कम मजदूरी का भुगतान किया जा रहा है। मजदूरी का भुगतान भी नियमित नहीं है। कहीं इन्हें मासिक मजदूरी मिलती है, कहीं तीन महीने में एक बार और कहीं जेल में बजट आने पर मजदूरी दी जाती है। मूल्यांकन विभाग की रिपेार्ट के अनुसार जिन बंदियों से बात की गई, उनमें से 80.27 प्रतिशत बंदी श्रमिकों ने कहा कि मजदूरी कम है। वहीं 18.84 प्रतिशत बंदी श्रमिकों ने मजदूरी समय पर नहीं मिलने की बात कही। यह कमियां भी थीं इन उद्योगाालाओं को कच्चा माल समय पर नहीं मिलता। कच्चा माल महानिदेशालय कारागार, जयपुर द्वारा भिजवाया जाता है। कच्चा माल से तैयार माल के आधार पर मजदूरी निर्धारित की जाती है। तैयार माल भी सरकारी विभागों में ही जाता है। उद्योगशालाओं में मशीनें बहुत पुरानी लगभग सन् 1960 से पहले की हैं। जिनसे परंपरागत तरीके से कार्य किया जाता रहा है। साथ ही टूट-फूट या खराब होने की दशा में बाजार में पार्ट्स नहीं मिलते। कई जेलों में उद्योगशालाओं जैसे अलवर, जयपुर के भवन, भंडारण आदि व्यवस्था अपर्याप्त, जर्जर अवस्था में पाई गई। इससे कच्चा और तैयार माल खराब हो जाता है। जेल की उद्योगशालाओं में निर्मित उत्पादों की उत्पादन लागत व विक्रय मूल्य बाजार से ज्यादा है। यानी ये सामान महंगे हैं, क्योंकि जेल उत्पादों को निर्मित करने की विधि एवं मशीनी उपकरण परम्परागत तथा पुराने हैं। वे खुले बाजार में उपलब्ध सस्ते और आकर्षक उत्पादों का मुकाबला नहीं कर पाते और इन्हें बाहर बेचना संभव नहीं हो पाता है। जेल में बने उत्पादों का प्रचार प्रसार भी नहीं किया जाता। आम आदमी को तो इनके बारे में पता ही नहीं होता। इन उद्योगशालाओं में दक्ष प्रशिक्षकों की भी कमी है और बहुत कम उद्यमों का प्रशिक्षाण दिया जा रहा है। कुशल प्रशिक्षकों के अभाव में बंदी श्रमिकों को काम सीखने के लिए पुराने प्रशिक्षित बंदियों का ही सहारा लेना पडता है। इस कारण कार्य में गुणवत्ता, सफाई आदि नहीं आ पाती है। कुशल बंदी श्रमिकों को उनकी दक्षता एवं कार्य कुशलता के लिए विभाग द्वारा पुरस्कृत नहीं किया जाता। ऐसे में उन्हें और ज्यादा तथा बेहतर काम करने के लिए प्रोत्साहन ही नहीं मिल पाता। महिला जेलों में प्रशिक्षण कार्य मुख्यत: एनजीओ व अन्य संस्थानों द्वारा ही कभी-कभी ही करवाए जाते हैं। इन दिक्कतों के कारण जेलों में उद्योगशालाएं चल तो रही हैं लेकिन इनका उत्पादन बहुत ज्यादा बढ़ नहीं पा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार इनमें वर्ष 2021-22 में 1,68,09,871.30 रुपये, वर्ष 2022-23 में 98,51,288.99 रुपये और वर्ष 2023-24 में राशि 64,82,199.730 रुपये का उत्पादन हुआ है। यानी उत्पादन बढ़ने के बजाए घट रहा है। इनका कहना है रिपोर्ट में जो बातें है, वो बिल्कुल सही हैं। 2016 तक तो इनको पचास रुपए ही मिलते थे। मशीनें अंग्रेजों के जमाने की लगती हैं। इसके अलावा जो सामान ये लोग बनाते हैं, वह हैंडमेड होने के कारण पहले ही महंगा है। उस पर सरकार टैक्स और लगा रही है। ऐसे में यह और महंगा हो जाता है। हमने अपनी रिपोर्ट में भी यह सब बता रखा है। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए ताकि हमारे कैदियों के बनाए उत्पाद भी तिहाड़ के कैदियों की तरह आसानी से बिकें और उन्हें व सरकार दोनों को फायदा हो। -प्रतीक कासलीवाल, वरिष्ठ अधिवक्ता और राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा जेलों में सुधार के लिए नियुक्त न्याय मित्र
- Source: www.amarujala.com
- Published: Mar 12, 2025, 07:54 IST
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