भाषा-बोली: बोलियां बचेंगी, तो बहुत कुछ बचेगा... उत्तर प्रदेश विधानसभा में हुई अनूठी पहल सराहनीय
खतरे में पड़ीं बोलियों पर खामोशी के बीच एक विधानसभा अपनी आंचलिक बोलियों में बोल उठी है। उत्तर प्रदेश की विधानसभा यों तो हल्ला-गुल्ला,जोर-आजमाइश, धक्का-मुक्की, बहिष्कार, बहिर्गमन के लिए सुर्खियों में रहती है, लेकिन इस बार के सत्र में एक अनोखी पहल हुई। यह है हिंदी की छोटी बहनें मानी जाने वाली अवधी, ब्रज, भोजपुरी, बुंदेली जैसी आंचलिक बोलियों को सदन की कार्यवाही में इस्तेमाल किए जाने की। ऐसा इसलिए किया गया कि उत्तर प्रदेश के सिकुड़ते ग्रामीण क्षेत्रों तक सिमटने वाली इन बोलियों को फैलने के लिए कुछ जमीन मिल सके। बोलियों को बचाने की दिशा में किसी विधानसभा का इस तरह का यह पहला प्रयोग है। जाहिर है, इससे ग्रामीण अंचल के लोग विधानसभा की कार्यवाही से जुड़ सकेंगे। इस पहल के पहले ही दिन सदस्यों ने अपनी-अपनी बोलियों में अपनी बात भी रखी। पद्मश्री प्राप्त अवधी लोक गायिका मालिनी अवस्थी कहती हैं कि आंचलिक बोली असली मातृभाषा है। जिस जगह नियम, विधान तय होता है, वहां गांव के किसी व्यक्ति को अपने अंचल की बोली के प्रयोग का अधिकार मिले, यह उसके विस्तार और लोकप्रियता को बढ़ाएगी। इससे हिचक टूटेगी और जो लोग ये बोली बोलना छोड़ चुके हैं, वे फिर से जुड़ेंगे। पद्मश्री प्राप्त लेखिका विद्या बिंदु सिंह विधानसभा में बोलियों के प्रवेश पर कहती हैं कि इससे लोकभाषाओं की सामर्थ्य बढ़ेगी, हिंदी समृद्ध होगी। सरकार की इस पहल का अच्छा संदेश जाएगा। परिवारों में अवधी का चलन बढ़ेगा। नई पीढ़ी इस लोकभाषा से जुड़ेगी। बोलियों का भूला गौरव वापस लौटेगा। इसमें दो राय नहीं कि बोलियां संकट में हैं। जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ रहा है, ग्रामीण क्षेत्र घटता जा रहा है, उसी के साथ-साथ क्षेत्रीय बोलियों का चलन भी कम होता जा रहा है। हर जगह बोलियों की पहचान और दायरा सिकुड़ रहा है। उनकी जगह हिंदुस्तानी या हिंदी ले रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जटू, गुर्जरी, अहीरी, ब्रजभाषा का इस्तेमाल बेहद कम हो गया है। फिल्मों और मीडिया प्लेटफॉर्मों ने हिंदुस्तानी के उपयोग को बढ़ावा दिया, जिससे बोलियों का दायरा सिमटता गया। सरकारों ने भी हिंदी को आम भाषा की तरह लागू कर दिया, पर क्षेत्रीय बोलियों को बचाने की दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं किया। बोलियां जाएंगी, तो अपने साथ बहुत कुछ ले जाएंगी। बोलियों के चलन में कमी से लोक परंपराओं पर बहुत बुरा असर पड़ा। आल्हा, स्वांग, रागिनी आदि लोकगीतों की गूंज कम होती गई। इन प्रस्तुतियों में क्षेत्र की किंवदंतियां, मिथक और किस्से शामिल थे, जो सांस्कृतिक परंपरा के समृद्ध संग्रह थे। बोलियां खत्म होने से क्षेत्र की संस्कृति भी खत्म होने लगी। इसे बचाने के सरकारी और सामाजिक प्रयास गंभीर नहीं दिखते। बड़ी भाषाएं कम बोली जाने वाली भाषाओं और बोलियों को निगल रही हैं। एक दशक पहले हर तीन महीने में एक भाषा या बोली विलुप्त हो रही थी, लेकिन अब यह आंकड़ा तेजी से बढ़ने लगा है। आंकड़ों के मुताबिक, अब हर 40 दिन में एक भाषा विलुप्त हो रही है। यानी एक साल में नौ बोली-भाषाएं हम गंवा दे रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूनेस्को ने चेतावनी दी है कि अगर हमारी मानसिकता न बदली, तो सदी के अंत तक दुनिया से करीब-करीब आधी यानी 3,000 बोली-भाषाएं लुप्त हो जाएंगी। इस वैश्विक युग में अधिक से अधिक बोली-भाषाओं का ज्ञान जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी अपनी भाषा का उन्नयन और श्रीवृद्धि भी है। अंग्रेजी के आगे हिंदी और हिंदी के आगे हमारी बोलियां अपना सम्मान और स्वाभिमान खो रही हैं। अंग्रेजी हाकिमों और बड़े लोगों की भाषा हो गई है और हिंदी आम लोगों की। दक्षिण-पूर्व एशिया के शासनाध्यक्ष यहां आते हैं और अवधी व भोजपुरी में बेहद सहजता से बात करते हैं, तो हमारे लिए ये हैरतअंगेज होता है कि वे अंग्रेजी छोड़ हमारी बोली में बात कर रहे हैं। लेकिन हम अपनी बोलियों से परहेज करते हैं कि कहीं हमें पिछड़ा या अंग्रेजी नहीं जानने वाला न समझ लिया जाए! आमतौर पर भाषाओं के विलुप्त होने का मुख्य कारण यह है कि माता-पिता अपने बच्चों से मातृभाषा में बात करना बंद कर रहे हैं। आंचलिक बोलियां न तो स्कूलों में बोली जा रही हैं और न ही कार्यस्थलों पर। बोली-भाषा के प्रति हीन भावना के चलते भी यह संकट खड़ा हुआ है। इसका असली कारण मुख्यधारा की संस्कृतियों के आगे क्षेत्रीय संस्कृतियों को कमतर या पिछड़ी मानने की सोच है। बोली या भाषा हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग होती हैं, जो हजारों सालों में विकसित होकर अपना आकार लेती हैं। जरूरत सोच बदलने की है। बोलियां बचेंगी, तो बहुत कुछ बचेगा।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Mar 24, 2025, 05:24 IST
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