आरबीआई की नीतियां: फूंक-फूंक कर कदम रख रहा केंद्रीय बैंक… मुद्रास्फीति और विकास की रफ्तार पर नजर जरूरी

भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा लगातार ग्यारहवीं बार रेपो दर को 6.5 फीसदी पर बरकरार रखा जाना, धीमी होती आर्थिक वृद्धि और लगातार मुद्रास्फीति के दबाव के बीच सतर्कता का संकेत है। रेपो दर को 6.5 फीसदी बनाए रखने का फैसला रिजर्व बैंक के विकास को बढ़ावा देने और मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के दोहरे उद्देश्य को रेखांकित करता है। अक्तूबर में मुद्रास्फीति की दर 6.2 फीसदी थी, जो छह फीसदी की ऊपरी सहनीय सीमा से अधिक थी। रिजर्व बैंक व्यापक रूप से उधार लेने की लागत को कम करने में हिचकिचा रहा है। दरों को स्थिर रखने के निर्णय के बावजूद रिजर्व बैंक ने आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए बैंकिंग प्रणाली में तरलता बढ़ाने के लिए वैधानिक तरलता अनुपात (सीआरआर) में 50 आधार अंकों की कटौती की है। इसे 4.5 फीसदी से घटाकर चार फीसदी करने के निर्णय से बैंकिंग प्रणाली में 1.16 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त तरलता आएगी और बैंकों की सकल आय में प्रति वर्ष लगभग 8,000 करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। रिजर्व बैंक का नजरिया संतुलन दर्शाता है। रिजर्व बैंक आर्थिक मंदी के जोखिमों से निपटते हुए मुद्रास्फीति को दो से छह फीसदी के भीतर रखने को प्राथमिकता में रख रहा है। यह फैसला वैश्विक मौद्रिक रुझानों के अनुरूप है, जहां विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंक अस्थिर वैश्विक स्थितियों और अगले वर्ष राष्ट्रपति ट्रंप की कार्रवाइयों के कथित जोखिमों के प्रति सतर्क हो रहे हैं। हालांकि, आलोचकों का तर्क है कि यह दर में कटौती के माध्यम से विकास को प्रोत्साहित करने का एक खोया हुआ अवसर हो सकता है, क्योंकि भारत की जीडीपी वृद्धि दर 2024 की तीसरी तिमाही में 5.4 फीसदी है, जो सात तिमाहियों का निचला स्तर है। एक लोकप्रिय वित्तीय एजेंसी द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में 50 में से मात्र सात अर्थशास्त्रियों ने इस बार दरों में कटौती की घोषणा की थी। यह देखते हुए रिजर्व बैंक के पास मूल्य स्थिरता और मुद्रास्फीति नियंत्रण के लिए गुंजाइश है, जैसा कि इसके घोषित जनादेश में कहा गया है, और लगातार दो महीनों से उपभोक्ता मुद्रास्फीति छह फीसदी की सीमाओं के पार है, ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि रिजर्व बैंक इस बार दरों में कटौती नहीं करेगा। इसके अलावा, डोनाल्ड ट्रंप की जीत ने डॉलर के मजबूत होने, वैश्विक मुद्राओं के कमजोर होने, अमेरिकी सरकार के बॉन्ड्स की पैदावार में उच्च वृद्धि के लिए मंच तैयार किया है। कर कटौती, कम विनियमन, उच्च टैरिफ और समग्र संरक्षणवाद की ट्रंप की अपेक्षित नीति के कारण उभरते बाजारों से धन का प्रवाह अमेरिकी बाजारों में हो रहा है। आरबीआई के सामने यह मुश्किल चुनौती थी कि वह मुद्रास्फीति को नियंत्रित करे और अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन दे, जो स्पष्ट रूप से धीमी पड़ रही है और साथ ही यह सुनिश्चित करे कि भारतीय रुपये पर बहुत अधिक दबाव न पड़े। भारतीय रुपये में व्यवस्थित अवमूल्यन आरबीआई का अघोषित लक्ष्य है। लोकसभा चुनाव के कारण, मार्च से जून की अवधि में केंद्र सरकार के बुनियादी ढांचे के खर्च और नई परियोजनाओं को मंजूरी देने में कटौती की गई थी। जुलाई 2024 में केंद्रीय बजट पारित होने के बाद भी केंद्र सरकार का खर्च कम रहा है और बजटीय अनुमान से नीचे रहा है। केंद्रीय खर्च में यह धीमी वृद्धि, उच्च मुद्रास्फीति, कोई कर रियायत नहीं और डेढ़ साल से अधिक समय तक उच्च ब्याज दरें जारी रहने से निजी खपत में गिरावट आई है। उपभोक्ता मांग में इस गिरावट के कारण वित्त वर्ष 2025 की दूसरी तिमाही के परिणामों में कॉरपोरेट आय में धीमी वृद्धि हुई। ऐसे में समय की मांग थी कि राजकोषीय और मौद्रिक, दोनों मोर्चों पर प्रति-चक्रीय (काउंटर-साइक्लिक) प्रोत्साहन दिया जाए। पीछे मुड़कर देखने पर रिजर्व बैंक की ब्याज दरों को स्थिर रखने की नीतिगत कार्रवाई एक छूटा हुआ अवसर हो सकती है। वित्त वर्ष 2025 की दूसरी छमाही में सरकारी खर्च में तेजी आने की उम्मीद है। अक्तूबर के त्योहारी मौसम में शुरुआती उछाल के बाद नवंबर में उच्च आवृत्ति के संकेतक लगातार आर्थिक रफ्तार में मंदी का इशारा कर रहे हैं। रिजर्व बैंक ने खाद्य और ऊर्जा की उच्च कीमतों का हवाला देते हुए वित्त वर्ष 2025 के लिए अपने मुद्रास्फीति अनुमान को बढ़ा दिया है। हालांकि यह नीतिगत रूढ़िवादिता को दर्शाता है, क्योंकि रिजर्व बैंक का लक्ष्य मुद्रास्फीति को स्थिर करना है। आर्थिक मंदी और गहरी हो सकती है, क्योंकि वित्त वर्ष 2025 और 2026 के लिए विकास पूर्वानुमान कम कर दिए गए हैं। उम्मीद है कि रिजर्व बैंक आगामी फरवरी की बैठक से दरों में कटौती पर विचार कर सकता है, जो मुद्रास्फीति के 2 से 6 फीसदी के भीतर रहने पर निर्भर है। राजकोषीय नीति संरेखण, वैश्विक कमोडिटी कीमतें और बाहरी क्षेत्र की स्थिरता जैसे प्रमुख संकेतक किसी भी दर समायोजन के समय का मार्गदर्शन करेंगे। ट्रंप प्रशासन की कार्रवाइयां भी रिजर्व बैंक के कदम को वैश्विक पृष्ठभूमि प्रदान करेंगी। रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति अन्य मुद्राओं, खासकर डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की कमजोरी या ताकत को प्रभावित करती है। यह प्रभाव कई कारणों से उत्पन्न होता है, जिसमें ब्याज दर फैसला, तरलता प्रबंधन और समग्र आर्थिक माहौल शामिल हैं। मसलन, जब रिजर्व बैंक रेपो दर बढ़ाता है, तो यह भारतीय मुद्रा को मजबूत बनाता है। उच्च दर भारतीय वित्तीय बाजार (बॉन्ड्स, इक्विटी) में विदेशी निवेश को आकर्षित करती है, क्योंकि निवेशक बेहतर रिटर्न चाहते हैं। भारतीय रुपये की बढ़ती मांग डॉलर के मुकाबले इसके मूल्य को बढ़ाती है। लेकिन ब्याज दरों में कटौती रुपये को कमजोर करती है। रिजर्व बैंक द्वारा रेपो दर को 6.5 फीसदी पर बनाए रखने का फैसला विदेशों में उच्च लाभ की तलाश में पूंजी के संभावित बहिर्वाह को रोककर रुपया का समर्थन करता है। रिजर्व बैंक की दिसंबर 2024 की नीति दूरदर्शी रूढ़िवाद को दर्शाती है। हालांकि यह मुद्रास्फीति को नियंत्रित कर सकती है, लेकिन विलंबित प्रोत्साहन मंदी बढ़ा सकता है, जिससे भविष्य की नीतिगत चालों का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए मुद्रास्फीति और विकास की रफ्तार की सावधानीपूर्वक निगरानी की आवश्यकता होगी।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Dec 21, 2024, 06:07 IST
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