श्रीकांत वर्मा: मैं अब हो गया हूँ निढाल। अर्थहीन कार्यों में नष्ट कर दिए मैंने साल-पर-साल
मैं अब हो गया हूँ निढाल। अर्थहीन कार्यों में नष्ट कर दिए मैंने साल-पर-साल न जाने कितने साल! —और अब भी मैं नहीं जान पाया है कहाँ मेरा योग मैं अब घर जाना चाहता हूँ मैं जंगलों पहाड़ों में खो जाना चाहता हूँ मैं महुए के वन में एक कंडे-सा सुलगना, गुँगुवाना, धुँधवाना चाहता हूँ। मैं जीना चाहता हूँ और जीवन को भासमान करना चाहता हूँ। मैं कपास धुनना चाहता हूँ या फावड़ा उठाना चाहता हूँ या गारे पर ईंटें बिठाना चाहता हूँ या पत्थरों नदी के एक ढोंके पर जाकर बैठ जाना चाहता हूँ। मैं जंगलों के साथ सुगबुगाना चाहता हूँ और शहरों के साथ चिलचिलाना चाहता हूँ मैं अब घर जाना चाहता हूँ मैं विवाह करना चाहता हूँ और उसे प्यार करना चाहता हूँ मैं उसका पति, उसका प्रेमी और उसका सर्वस्व उसे देना चाहता हूँ और उसकी गोद भरना चाहता हूँ। मैं अपने आस-पास अपना एक लोक रचना चाहता हूँ। मैं उसका पति, उसका प्रेमी और उसका सर्वस्व उसे देना चाहता हूँ और पठार ओढ़ लेना चाहता हूँ। मैं समूचा आकाश उस भुजा पर ताबीज़ की तरह बाँध लेना चाहता हूँ। मैं महुए के वन में एक कंडे-सा सुलगना, गुँगवाना धुँधवाना चाहता हूँ। मैं अब घर जाना चाहता हूँ। हमारे यूट्यूब चैनल कोSubscribeकरें।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Sep 17, 2025, 09:43 IST
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