समाज: स्त्रीवाद के बरक्स ट्रैड वाइफ... इस बदलाव के निहितार्थ गहरे हैं
ट्रैडिशनल वाइफ मूवमेंट, जिसे संक्षेप में ट्रैड वाइफ मूवमेंट भी कहा जा रहा है, यह अमेरिका में चल रहा है। यह स्त्रीवाद के विलोम के रूप में आया है। इससे जुड़ी स्त्रियां चाहती हैं कि उन्हें जीवन में निभाने के लिए वही भूमिका मिले, जो 1950 में पारंपरिक स्त्रियां निभाती थीं। वे घर को उसी तरह से चलाना चाहती हैं, जिसमें घर की देखभाल कर सकें। और खुद को होम मेकर्स कह सकें। वे पुरानी पीढ़ी की स्त्रियों की तरह ही घर की साफ-सफाई, साज-सज्जा करना चाहती हैं। खाना पकाना चाहती हैं। बच्चों की देखभाल करना चाहती हैं। उनका कहना है कि जिस तरह पहले स्त्रियां घरों में रहकर घरेलू जिम्मेदारियां निभाती थीं और पुरुष बाहर जाकर पैसा कमाकर लाते थे, वैसा ही अब उन्हें एक मुकम्मल परिवार चाहिए। इनमें से बहुत-सी स्त्रीवादियों से प्रति प्रश्न भी कर रही हैं कि अगर हम अपने परिवार की देखभाल करना चाहते हैं, बच्चे पालना चाहते हैं, अन्य जिम्मेदारियां निभाना चाहते हैं, तो यह हमारी पसंद है। हमारा मजाक उड़ाने वाले आप कौन वे खुलेआम स्त्रीवादी विचार को खारिज कर रही हैं। उनका मानना है कि प्राथमिक रूप से पुरुष को पैसा कमाना और स्त्री को घर संभालना चाहिए। इस आंदोलन को स्त्रीवाद को अस्वीकार के रूप में भी देखा जा रहा है। और यह अस्वीकार स्त्रियों के द्वारा ही हो रहा है। सोशल मीडिया के इस दौर में इंस्टाग्राम, टिकटॉक, फेसबुक आदि ने इसकी लोकप्रियता बढ़ा दी है। बहुत से यूट्यूब चैनल पर बहुत से इन्फ्लुएंसर इसे सेलिब्रेट कर रहे हैं। अनेक स्त्रियों का कहना है कि वे कॅरिअर में लगातार बढ़ते दबाव से परेशान हैं। अब वे इसे नहीं झेल सकतीं। स्त्रियों को यह चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वे नौकरी करना चाहती हैं या घर में रहना। आश्चर्य की बात यह है कि बड़ी संख्या में युवा लड़कियां इसका समर्थन कर रही हैं। स्त्रीवाद के एक वर्ग ने कोख को स्त्री का सबसे बड़ा शत्रु बताया था, लेकिन ट्रैड वाइव्स मां बनना चाहती हैं। इस सोच का बड़ा कारण यह भी है कि वहां अकेलापन बहुत ज्यादा है। न बच्चों की देखभाल के लिए घर में माता-पिता मौजूद हैं, न ही बुजुर्गों के लिए। परिवार की इकाई, कौटुंबिक रिश्ते लगभग न के बराबर हैं। छुटपन से ही बच्चे तरह-तरह के नशे के शिकार भी होते हैं। वे अपराध की दुनिया में भी चले जाते हैं। इसलिए अरसे से वहां के पुलिस अधिकारी, समाजशास्त्रियों का बड़ा वर्ग, मनोवैज्ञानिक आदि कह रहे हैं कि यदि बच्चों और बुजुर्गों को बचाना है, तो परिवार चाहिए। क्लिंटन काल के उपराष्ट्रपति अल गेर की पत्नी तो 1993 से परिवार की वापसी का आंदोलन चला रही हैं। हाल ही में जब डोनाल्ड ट्रंप चुनाव लड़ रहे थे, तो उन्होंने भी कहा था कि परिवार चाहिए। उन्होंने स्त्रीवाद पर भी हमला बोला था। संयुक्त राष्ट्र भी परिवार की बात कर रहा है। परिवार दिवस भी मनाए जा रहे हैं। लेकिन बहुत से लोग इस आंदोलन की बढ़ती लोकप्रियता से चिंतित भी हैं। उनका मानना है कि यदि स्त्रियां घर में रहेंगी, तो वे आर्थिक रूप से फिर से पुरुषों पर निर्भर हो जाएंगी। इससे उनकी निर्णय लेने की क्षमता और स्वतंत्रता बहुत प्रभावित होगी। यही नहीं उन्हें बड़े पैमाने पर घरेलू हिंसा का भी सामना करना पड़ेगा। इससे स्त्री-पुरुष की बराबरी पर भी प्रभाव पड़ेगा। स्त्रियां फिर से एक तरह से पुरुष की गुलाम हो जाएंगी। जहां उनके हर तरह के निर्णय पर पुरुष के आदेश लदे होंगे। अभी जो कुछ बहुत आकर्षक लग रहा है, बाद में वही उनके पांव की बेड़ी भी बन सकता है। कई बार लगता है कि किसी भी विमर्श की उम्र अस्सी से सौ वर्ष तक ही होती है। चाहे वह समाजवाद का सपना हो या स्त्रीवाद का जोर। फिर कोई नया विमर्श या पुराना विमर्श लौटकर, इस जगह को ले लेता है। लेकिन स्त्रियों को यह ध्यान जरूर रखना चाहिए कि पंचतंत्र में कहा गया है कि यदि कंचन पास नहीं, तो कामिनी भी अपनी नहीं। यानी यदि आपके पास पैसे नहीं, तो कोई अपना नहीं। ट्रैडिशनल वाइफ मूवमेंट में भी बहुत से लोग स्त्रियों को यह सिखा रहे हैं कि शादी किसी अच्छे इन्सान से न करके, किसी बहुत पैसे वाले से करो, जिससे जिंदगी भर ऐश कर सको। तब न नौकरी करने की जरूरत रहेगी, न ही घर के काम करने की। जीवन खूब आराम और मस्ती में कटेगा। यानी कि किसी भी विचार से बड़ा पैसा है, तो फिर पैसे के लिए किसी पर निर्भर क्यों रहा जाए। अपने पांव पर खड़ा होना क्या बुरा है।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Aug 21, 2025, 06:27 IST
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