दहशत से फिर दहली दिल्ली: खौफ ने बीते दर्द को फिर कुरेद दिया, जब भय में सिहरन पैदा कर देती है फोन की घंटी
मोर्चरी में एक जली हुई लाश है.., आकर पहचान कर लीजिए आज भी जब किसी का फोन आता है तो सांसें थम जातीं हैं और दिल घबरा जाता है। यह कहना है 2011 में हाईकोर्ट हमले में अपने पति को खोने वाली संगीता का। हर धमाका शहर के शोरगुल को न सिर्फ बम की तेज आवाज से खामोश कर देता है, बल्कि उन घरों को भी बिखेर देता है जिन्होंने अपनों को खो दिया हो। इस दहशत ने पिछले धमाकों का दर्द भी कुरेद दिया है। लाल किला मेट्रो स्टेशन के पास सोमवार को हुए धमाके ने उन लोगों की आंखें भी नम कर दीं, जिन्होंने कभी इसी शहर की गलियों में अपनों को खोया था। सरोजिनी नगर, कनॉट प्लेस, पहाड़गंज और दिल्ली हाईकोर्ट। बीते दो दशकों में हर धमाके ने दिल्ली के दिल पर कई निशान छोड़े हैं। 2005 में कालका जी मंदिर के पास हुए धमाके में कुलदीप ने 80 लोगों की जान बचाई, लेकिन उन्होंने जीवनभर के लिए अपनी दोनों आंखें खो दी थी। कुलदीप आज भी उन दिनों को याद कर रो पड़ते हैं। (29 अक्तूबर, धनतेरस की रोशन रात, 2005) टिक-टिक की आवाज आई तो बम लेकर भागा जो हाथ में ही फट गया कुलदीप डीटीसी बस में ड्राइवर हैं और वह उस दिन बस चला रहे थे। उन्होंने बताया कि पीछे से एक पैसेंजर ने आवाज दी। ड्राइवर साहब, बस में बम है। मैं जल्दी से बस रोककर पीछे गया तो देखा बैग में बम है और टिक-टिक की आवाज आ रही है। मेरे दिमाग में फिल्मों के सीन चल रहे थे कि हरी और लाल तार को काटने से बम डिफ्यूज हो जाता है। बस में करीब 80 लोग थे, इसलिए मैं बम लेकर बाहर एक पेड़ की तरफ दौड़ा। इससे पहले की मैं तारों को काटने की कोशिश करता, बम मेरे हाथ में ही फट गया। इस विस्फोट में मैंने अपनी दोनों आंखें, एक कान और हाथ खो दिए। उस वक्त मेरी पत्नी गर्भवती थी। अगले ही महीने मुझे एक बेटा हुआ, जिसे मैं कभी देख नहीं पाया। मेरे भाई का शरीर अपना समझ किसी मुस्लिम परिवार ने दफना दिया 2005 में सरोजनी नगर में हुए धमाके में अपने भाई को खोने वाले सुरेन्द्र ने बताया कि वह भयावह रात मैं नहीं भूल सकता। धमाके में जलने वालों के चेहरे पहचानने मुश्किल थे। मेरा भाई खुशलेंद्र सरोजनी नगर मार्केट में काम करता था। जिस वक्त धमाका हुआ, वह जूस कॉर्नर पर के पास खड़ा था। मैं जब मोर्चरी में गया तो कटे हुए सर, जले शरीर और मांस के लोथड़े पड़े थे। मैं हफ्तों चक्कर काटता रहा कि मेरे भाई का शरीर मुझे मिले। अंत में उसके शरीर के कुछ टुकड़ों से दाह संस्कार किया। मुझे पता चला कि मेरे भाई का शरीर, अपना बेटा का समझ किसी मुस्लिम परिवार ने दफना दिया था। 2008 के धमाके ने मुझे अपाहिज बना दिया शाकिर अहमद बताते हैं कि 13 सितंबर 2008 को मैं ट्रेन से रोजाना अपने घर गाजियाबाद जाया करता था। उस दिन किसी वजह से ट्रेनें रद्द थीं। इसलिए मैंने बाराखंबा रोड स्थित बस स्टैंड से बस लेना ठीक समझा। मैं फुटपाथ पर खड़ा था, वहीं बगल में लगे कूड़ेदान में बम रखा था, जिसकी जानकारी किसी को नहीं थी। मैं जैसे ही बस लेने के लिए आगे बढ़ा, जोरदार धमाका हुआ। इस विस्फोट में मैंने अपना पैर खो दिया। लगातार तीन महीने तक राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती रहा। आज भी पुरानी तस्वीरें देख आंखें नम हो जाती हैं कि कैसे बिना सहारे मैं अपने पैरों पर खड़ा रहता था। 2011 के उस धमाके ने मेरी मांग सूनी कर दी 2011 में हुए हाईकोर्ट हमले में संगीता ने अपने पति को खो दिया। संगीता बताती हैं कि मेरे पति अशोक शर्मा शिक्षा मंत्रालय में कार्यरत थे। उस दिन वह किसी काम से हाईकोर्ट गए थे, जिसकी जानकारी उनके दोस्त को थी। न्यूज में प्रसारित खबरों को देख उनके दोस्त घबरा गए और इसकी पुष्टि के लिए मुझे कॉल किया। मैंने कहा मुझे कोई जानकारी नहीं है तो उन्होंने अस्पतालों में पता किया, जिसके बाद मुझे लाश पहचानने के लिए कॉल आया। मैंने कभी सोचा नहीं था कि ऐसा दिन भी आएगा कि मुझे लाशों में अपने पति को ढूढना पड़ेगा।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Nov 12, 2025, 02:05 IST
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