नेपाल में युवाओं के भड़कने के पीछे की ये है एक और बड़ी वजह
नेपाल में लोकतंत्र लागू हुए 15 साल से ज्यादा का वक्त बीत चुका है, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता और बेरोजगारी का संकट आज भी जस का तस है। काठमांडू और अन्य जिलों में भले ही हालिया विरोध प्रदर्शन का तात्कालिक कारण सोशल मीडिया पर प्रतिबंध रहा हो, लेकिन ज़मीन पर असली गुस्सा बेरोजगारी और भ्रष्टाचार को लेकर है। यही वजह है कि छात्र और युवा बार-बार सड़कों पर उतर आते हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और विश्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि नेपाल की आधिकारिक बेरोजगारी दर 2024 में लगभग 11-12% है। लेकिन यह सिर्फ सतही आंकड़ा है। असलियत कहीं ज्यादा गंभीर है क्योंकि बड़ी आबादी असंगठित क्षेत्र और मौसमी काम पर निर्भर है। लोकतंत्र आने के बाद शिक्षा का विस्तार हुआ, कॉलेज और विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ी। लेकिन इसके समानांतर रोजगार के अवसर नहीं बढ़े। नतीजा यह हुआ कि लाखों पढ़े-लिखे युवा खाड़ी देशों, मलेशिया और भारत की ओर पलायन कर गए। नेपाल सरकार के आंकड़ों के मुताबिक हर साल करीब 4-5 लाख नेपाली युवा रोजगार के लिए विदेश जाते हैं। इससे देश में ब्रेन ड्रेन की समस्या भी गंभीर हो चुकी है। विदेश जाकर काम करने वाले युवाओं को अकसर कम वेतन, कठिन परिश्रम और असुरक्षित परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। कई बार खाड़ी देशों से नेपाली मजदूरों की मौत की खबरें भी आती रही हैं। यही हताशा और आक्रोश नेपाल की नई पीढ़ी में उबल कर सामने आता है। वे पूछते हैं – जब शिक्षा है, लोकतंत्र है, तो रोजगार क्यों नहीं है रोजगार संकट के साथ-साथ महंगाई और भ्रष्टाचार ने जनता की तकलीफ और बढ़ा दी है। पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें बार-बार बढ़ती रही हैं। खाने-पीने की वस्तुओं के दाम आम आदमी की पहुंच से बाहर होते जा रहे हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रैंकिंग में नेपाल लगातार दक्षिण एशिया के सबसे भ्रष्ट देशों में गिना जाता है। नेताओं और अफसरों पर घोटालों और कमीशनखोरी के आरोप आम हैं। छात्र संगठनों और नागरिक समूहों का कहना है कि लोकतंत्र ने अभिव्यक्ति का मंच तो दिया, लेकिन भ्रष्टाचार और बेरोजगारी पर सरकार ने कभी ठोस कदम नहीं उठाए। यही वजह है कि सोशल मीडिया बैन के खिलाफ भड़का गुस्सा बेरोजगारी और भ्रष्टाचार की गहरी पीड़ा में बदल गया। नेपाल की सत्ता संरचना में जातिगत असमानता भी बेरोजगारी और गुस्से का एक बड़ा कारण है। उच्च जातियों का संसद में प्रतिनिधित्व उनकी आबादी के अनुपात से कहीं अधिक है, जबकि मधेशी, आदिवासी जनजाति और दलित समुदाय को पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं मिल पाती। यह असमानता उन्हें राजनीतिक और आर्थिक रूप से हाशिये पर धकेलती है। बेरोजगारी का बोझ सबसे ज्यादा इन्हीं समुदायों पर है। नेपाल में जारी विरोध प्रदर्शनों का असर भारत-नेपाल सीमा पर भी दिखने लगा है। उत्तर प्रदेश और बिहार से सटी सीमा पर सशस्त्र सीमा बल (SSB) ने निगरानी बढ़ा दी है। सीमा चौकियों पर सघन चेकिंग हो रही है, ड्रोन से गश्त की जा रही है। बलरामपुर और बहराइच जैसे जिलों में स्थानीय पुलिस भी सतर्क है ताकि नेपाल के आंदोलन का असर भारत की सीमा तक न पहुंचे। नेपाल का लोकतांत्रिक सफर 2008 में राजशाही के अंत के बाद शुरू हुआ। जनता ने उम्मीद की थी कि लोकतंत्र रोज़गार, विकास और समानता लेकर आएगा। लेकिन डेढ़ दशक बाद भी हालात यह हैं कि बेरोजगारी चरम पर है, भ्रष्टाचार गहराई तक फैला है और जातिगत असमानता जस की तस है। आज नेपाल की सड़कों पर उतरे छात्र यही सवाल पूछ रहे हैं कि अगर लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव और राजनीतिक अस्थिरता है, तो इसका जनता को क्या फायदा असल चुनौती बेरोजगार युवाओं को रोजगार दिलाना और शिक्षा के अनुरूप अवसर पैदा करना है। जब तक सरकार इस दिशा में ठोस पहल नहीं करती, तब तक यह असंतोष बार-बार विस्फोट बनकर सामने आता रहेगा। नेपाल के लिए यह आंदोलन सिर्फ सोशल मीडिया की आज़ादी का सवाल नहीं है, बल्कि यह उन लाखों बेरोजगार युवाओं की आवाज़ है जो अपने ही देश में अवसरों से वंचित हैं।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Sep 09, 2025, 17:16 IST
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