Siddharthnagar News: फगुआ से होली का रंग जमाने वाले गायब, सूनी हुई चौपाल

संवाद न्यूज एजेंसीतुलसियापुर। समय में हुए परिवर्तन ने हमारे पारंपरिक संगीत पर भी असर डाला है। इसका परिणाम यह है कि कई पारंपरिक संगीत अपनी चमक खोने लगे हैं। इन्हीं संगीतों में फाग भी शामिल है। होली में ढोलक, झाल और मंजीरे पर गाया जाने वाला फाग अब बहुत ही कम स्थानों पर सुनने को मिलता है।पाश्चात्य संस्कृति आज के युवाओं पर इस कदर हावी हो चुकी है कि वह अपनी पुरानी परंपराओं को भूल चुके हैं। एक समय था जब वसंत पंचमी के बाद से ही गांवों में जगह-जगह मतवालों की टोली बैठकर फाग गाती रहती थी। प्रतिदिन किसी न किसी के दरवाजे पर फाग का आयोजन होता था। मतवालों की टोली बैठती थी और घर में भांग पीसी जाती थी। इसके बाद महिलाओं द्वारा घर में पकवान बनाए जाते थे। यह क्रम होली के दिन तक चलता था। इसके बाद जिस दिन होलिका दहन होता था उस दिन होली जलने से पूर्व भी गांव के एक सार्वजनिक स्थान पर लोग जुटते थे और फाग का गायन करते थे। इसके बाद जोगीरा गाते हुए होलिका दहन होता था। देर रात लोग सोने जाते थे। सुबह उठकर लोगों के दरवाजे-दरवाजेे घूमकर फाग का गायन करते हुए घूमते थे। महिलाएं छतों से रंगों की बारिश करती थीं, लेकिन समय बदला गांवों में वैमनस्य फैला और पाश्चात्य संस्कृति की मार इस त्योहार पर भी पड़ी। नई पीढ़ी होली के दिन डीजे लगाकर जगह-जगह झूमती नजर आती है। उसके पास फाग के प्रति कोई लगाव नहीं है। इसके कारण आज ढोलक की थाप, झाल और मंजीरे की झंकार बहुत कम सुनने को मिलती है।होली खेलैं रघुवीरा अवध में और आज बिरज में होली रे रसिया गाती हुरियारों की टोली गायब हो गई है, लेकिन आज भी गांव के बुजुर्गों के जेहन में पुरानी यादें ताजा हैं। बुजुर्गों को अपने पूर्वजों की इस थाती के विलुप्त होने की चिंता है। नई पीढ़ी का इसके प्रति रुझान नहीं है। तालकुंडा के पूर्व प्रधान रामानंद चौहान, मानपुर निवासी पूर्व प्रधानाध्यापक नंद किशोर चौधरी, श्रीरामलीला समिति औदही कलां के अध्यक्ष गंगाराम तिवारी बताते हैं कि अब साथियों के न होने से गांव में फाग का महत्व खत्म होता जा रहा है। युवा पीढ़ी इसे एकदम भूलती जा रही है। शिवरात्रि के बाद गांव में फगुआ गायकों की मंडली सक्रिय हो जाती थी, लेकिन अब यह परंपरा गांव से लगभग लुप्त होती जा रही है। पुराने फगुआ गायक अब नहीं रहे जो हैं भी अब वृद्ध हो चुके हैं। औदही कलां गांव के ही अवकाश प्राप्त चीफ फार्मासिस्ट डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल, सुमेरु गिरी, राम अचल, राम लखन शास्त्री कहते हैं कि हम लोग भक्ति पर आधारित फगुआ गाते थे। आज तो भोजपुरी और फिल्मी अश्लील गीत डीजे पर चल रहे हैं। जिस पर युवा थिरक कर होली मना रहे हैं। इसके चलते फगुआ गायन की परंपरा लुप्त होती जा रही है। अब गांवों में चल रही गोलबंदी के चलते लोग एक दूसरे के साथ बैठना पसंद नहीं करते, तब लोग दुश्मनी होने के बावजूद भी होली के रंग में दुश्मनी को भुला देते थे।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Mar 11, 2025, 22:54 IST
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