ट्रंप 2.0 : यह वैश्वीकरण का नया दौर है, नए तरीके से गढ़ी जा रही है इसकी शक्ल
ट्रंपप्रशासन द्वारा शुरू किया गया टैरिफ युद्ध उस प्रक्रिया के गहराते संकट का नवीनतम लक्षण मात्र है, जिसे वैश्वीकरण कहा जाता है। दरअसल, कई मायनों में ट्रंप का होना भी उसका ही प्रतिबिंब है। इसे समझने के लिए सबसे पहले वैश्वीकरण की खास विशेषताओं को समझना होगा। एक-दूसरे से जुड़ी हुई विश्व अर्थव्यवस्था लंबे समय से रही है, जिसके इतिहास में वैश्वीकरण एक अलग चरण है। हालांकि वैश्वीकरण की विशेषताएं 1970 के दशक के तेल झटकों के बाद से ही विकसित हो रही थीं, लेकिन इसने शीतयुद्ध की समाप्ति और एकध्रुवीय दुनिया के उद्भव के बाद पूर्ण परिपक्वता हासिल की, जिसमें अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों की स्थिति अजेय प्रतीत हुई। वैश्वीकरण की एक महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति वित्तीयकरण की प्रक्रिया का वैश्विक प्रसार था, जिसके तहत उत्पादक गतिविधियों के सापेक्ष वित्तीय गतिविधियों में असमान वृद्धि हुई। भारतीय मध्यम वर्ग के लिए यह प्रक्रिया उसके खर्च को पूरा करने में ऋण और बीमा की बढ़ती प्रमुख भूमिका और उसका धन और आय की स्थिति (पेंशन सहित) पर शेयर बाजारों में कारोबार की जाने वाली वित्तीय प्रतिभूतियों में निवेश के बढ़ते महत्व के रूप में रेखांकित हुई है। वित्तीयकरण का एक बेहद महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय आयाम भी था। जैसे-जैसे दुनिया के वित्तीय बाजार आपस में जुड़ते गए और उनके बीच अरबों डॉलर का प्रवाह हुआ। इससे न केवल शेयर बाजार, बल्कि विभिन्न देशों की मुद्राओं की विनिमय दरें भी बेहद अस्थिर हो गईं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में डॉलर की स्थिति के कारण अमेरिका ने वैश्विक वित्तीय प्रणाली में एक विशेष स्थान प्राप्त किया। दुनिया भर में उत्पादन में पूंजी निवेश की स्वतंत्रता और सीमा पार व्यापार प्रतिबंधों के खत्म होने से वैश्विक उत्पादन के भूगोल में बदलाव आया। जैसे-जैसे विश्व अर्थव्यवस्था के प्रमुख खिलाड़ी कम लागत वाले स्थानों की खोज करते गए और अन्य फर्मों को आउटसोर्सिंग करके अपने जोखिम व लागत को कम करते गए, उन्होंने वैश्विक आपूर्ति शृंखला का निर्माण किया, जो कई देशों तक फैली हुई थी, जिसमें चीन और पूर्वी तथा दक्षिण-पूर्वी एशियाई क्षेत्र पर विशेष ध्यान दिया गया था। भारत के लगभग पूरी तरह से निर्यातोन्मुख आईटी सेवा क्षेत्र का विकास इसी का परिणाम था। हालांकि, वैश्विक विनिर्माण में भारत की भागीदारी आयात-प्रधान रही और आयात का स्रोत तेजी से पूर्वी एशिया की ओर बढ़ रहा था। पश्चिम के बाहर स्थित उत्पादन पर बढ़ती निर्भरता लंबे समय तक अमेरिका के लिए चिंता का विषय नहीं थी, क्योंकि यह अब भी दुनिया का वह हिस्सा था, जहां अमेरिका निर्विवाद महाशक्ति था। इसके अलावा, इसने अमेरिका और अन्य देशों के धनी लोगों को दुनिया भर में आर्थिक और वित्तीय गतिविधियों से, जिसमें उनका तकनीकी नेतृत्व भी शामिल है, जबर्दस्त लाभ पाने में सक्षम बनाया, जबकि उनके श्रमिकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा-रोजगार की असुरक्षा बढ़ गई, मजदूरी स्थिर हो गई, और सामाजिक सुरक्षा लाभ कम हो गए। नतीजतन विकसित देशों में सबसे ज्यादा अमेरिका में असमानताएं बहुत बढ़ गईं। यही बात उन देशों में भी हुई, जहां विनिर्माण का उत्पादन तेजी से केंद्रित होता गया, जहां श्रमिकों का सस्ता श्रम अक्सर उत्पादन स्थल के रूप में प्रतिस्पर्धा के लिए महत्वपूर्ण आधारों में से एक होता है। कुछ मामलों में ऐसा हुआ कि रोजगार की तीव्र वृद्धि ने अंततः मजदूरी में थोड़ी बढ़ोतरी की। लेकिन भारत उनमें से नहीं है, क्योंकि यहां अब भी बेरोजगारी और अल्परोजगार की बड़ी समस्या है। दुनिया भर में, बढ़ती असमानताओं ने सामाजिक कलह और संघर्ष को हवा दी है और इसने कई देशों में राजनीतिक स्थितियों को मौलिक रूप से बदल दिया है। यही बदलाव वैश्वीकरण ने किया, हालांकि, इसने अंततः अपने मूल समर्थकों को प्रभावी रूप से उसी प्रक्रिया के विरुद्ध कर दिया। जिनकी शक्ति का प्रयोग न केवल वैश्वीकरण में विभिन्न देशों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए किया गया था, बल्कि ऐसी भागीदारी की शर्तों को निर्धारित करने के लिए भी किया गया था, जो अब उसी शक्ति का उपयोग इसके कुछ परिणामों को उलटने और अपने प्रभुत्व को फिर से स्थापित करने के लिए कर रहे हैं। पूर्वी क्षेत्र में तीव्र औद्योगिकीकरण का लाभ उठाने वाले दक्षिण कोरिया और ताइवान जैसे देशों के विपरीत चीन अपने बड़े आकार के साथ-साथ पश्चिमी प्रभाव क्षेत्र से बाहर होने के कारण भी अलग था। चीन का उदय और विश्व व्यापार के स्वरूप पर इसके प्रभाव-जिसके कारण पूर्वी एशिया प्राकृतिक संसाधनों और कृषि वस्तुओं के निर्यात के लिए भी तेजी से महत्वपूर्ण गंतव्य बन गया, जिन पर बहुत से देश निर्भर हैं-ने एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था के आधार को कमजोर कर दिया। यह इसलिए भी अधिक महत्वपूर्ण था, क्योंकि इसी प्रक्रिया ने उभरती अर्थव्यवस्थाओं के एकजुट होने के लिए कुछ आधार भी तैयार किए, ताकि वे विश्व मामलों में बड़ी भूमिका निभा सकें-एससीओ, ब्रिक्स गठबंधन और जी-7 से जी-20 तक विस्तार इसकी अभिव्यक्तियां हैं। ऐसा नहीं है कि अमेरिकी प्रभुत्व पूरी तरह से समाप्त हो गया है या डॉलर का आधिपत्य तत्काल खतरे में है। अमेरिका के पास अब भी उभरते देशों (जैसे भारत और चीन के बीच) के भीतर विभाजन और प्रतिद्वंद्विता का लाभ उठाने की काफी गुंजाइश है। निरंतरता और परिवर्तन के इस संयोजन का प्रतिबिंब 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट से उबरने में वैश्विक अर्थव्यवस्था की अक्षमता में देखा जा सकता है। इसके अलावा, जैसे-जैसे अमेरिकी वर्चस्व के सपने का अंत स्पष्ट होता जा रहा है, अमेरिका भी घायल बाघ की तरह व्यवहार करने के लिए तैयार हो रहा है। वह अपनी बची हुई ताकत का इस्तेमाल अपनी कमजोरियों पर काबू पाने के लिए कर रहा है। बाइडन प्रशासन द्वारा नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के अपने संस्करण को लागू करने का प्रयास और प्रतिबंधों की नीति तथा ट्रंप प्रशासन का मेक अमेरिका ग्रेट अगेन उसके भीतर ही पैदा हुए ध्रुवीकरण से उत्पन्न एक ही घटना के दो रूप मात्र हैं। दोनों ने ही दुनिया में संघर्ष, अनिश्चितता और अस्थिरता पैदा करने में योगदान दिया है। यह विवाद का मुद्दा है कि क्या ये अमेरिकी आधिपत्य के क्षरण को विलंबित करने में सफल हो रहे हैं या वास्तव में इसे तीव्र करने में सहायक हो रहे हैं।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Apr 11, 2025, 06:56 IST
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