भीड़ का मनोविज्ञान समझना जरूरी: अति उत्साह और संयम का अभाव घातक, हादसों से बचने का मंत्र- जिम्मेदारी का अहसास

कुंभ की भगदड़ से अभी तक पूरी तरह निपटे भी नहीं थे कि अब रेलवे की भीड़ ने एक और नई घटना को जन्म दे दिया। मतलब अब भीड़ की भगदड़ भी एक नई आपदा बन रही है। इस भगदड़ ने भी 18 लोगों को लील लिया और कई अस्पताल पहुंच गए। कुंभ की घटना हो या फिर हाथरस की भक्तों की भीड़ या फिर 2008 की नैना देवी तथा 2009 व 2011 की सबरीमाला की भगदड़, इन सभी ने पूरे देश का ध्यान खींचा। एक तरफ जहां, हाथरस में भक्तों ने सारी सीमाएं तोड़ते हुए और अपने पूजनीय के चरण छूने के चक्कर में एक बड़ी घटना को जन्म दिया और करीब 125 लोगों की जान गई। उसी तर्ज पर प्रयागराज महाकुंभ में जो कुछ भी हुआ, उसे सारी दुनिया ने देखा और उसके बाद फिर सड़कों से संसद तक वाकयुद्ध और खींचातान अब तक रुकी नहीं है। इन विषयों में सरकार और विपक्ष, दोनों कई तरह से अपने तर्कों से एक-दूसरे पर भारी पड़ने की कोशिश में लगे रहते हैं। अब रेलवे की भीड़ ने एक और बहस छेड़ दी है। असल में, अगर इन सभी बड़ी घटनाओं को देखें, तो हम मात्र इन्हें ही भीड़ न मानें। ऐसी भीड़ अक्सर कई अन्य आयोजनों में भी पाई जाती है। वैसे अपने देश में भीड़ दिखना कोई नई बात नहीं है। चाहे सड़कें हों या फिर सर्कस, भीड़ होने के पीछे मात्र भक्तों के दर्शन या स्नान ही नहीं होते, बल्कि क्रिकेट में जब हमने विश्व कप जीता, तो मुंबई में सड़कों के हालात ठीक उसी तरह थे, जैसे कुंभ के स्नान में लोगों की भीड़ थी। सच बात तो यह है कि हम यह कोशिश नहीं कर रहे हैं कि इस भीड़ का अध्ययन तथा विश्लेषण भी करें। यह उल्लेखनीय है कि भीड़ जो भगदड़ का बड़ा कारण बनती है, उसमें एक समान बात यह है कि यह श्रद्धा, उत्साह या उन्माद से जुड़ी होती है। अब कुंभ को ही देख लीजिए। पिछले लगातार एक साल से इतनी ढेर सारी तैयारियां चली हैं और ऐसा भी नहीं माना जा सकता कि कुंभ में हालात एकदम अव्यवस्थित थे। अक्सर यही होता है कि हम सरकार और उसकी व्यवस्था पर चोट कर बहस को कहीं और ले जाना चाहते हैं, मूल प्रश्न एक तरफ रह जाते हैं। सरकार किसी की भी होती, और ऐसी घटना होती, तो भी यही सब होता, क्योंकि हम मूल भाव को समझने और समझाने में बहुत ज्यादा चूके हुए हैं। अब देखिए, यह अपेक्षित ही था कि 30-40 करोड़ लोग कुंभ में पहुंचेंगे और इसलिए कोई भी सरकार होती, ऐसे में अनहोनी से बचने के लिए भरसक मुस्तैदी रखती। लेकिन इन सबके बावजूद अपार भीड़ ने एक घटना को इसलिए जन्म दे दिया, क्योंकि सीमा तोड़ व्याकुलताएं हमें ही कुचलने लगती हैं। इसमें व्यवस्था के आकलन के साथ जन-व्याकुलता का बराबर दोष है। अयोध्या में ही देखिए, जहां लाखों लोग एकत्रित हुए थे, लेकिन सब ठीक से निपट गया, क्योंकि ऐसा अवसर नहीं आया, जिससे लोगों में अफरा-तफरी मच जाए। वहीं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन में भगदड़ जैसी घटनाओं के पीछे एक बड़ा कारण जल्दबाजी, व्याकुलता और संयम का अभाव भी है। यह स्पष्ट है कि एक असीमित भीड़ में कुछ व्यक्तियों के कारण या अन्य विपरीत परिस्थितियों से भड़की एक भगदड़ी चिनगारी पूरे माहौल को बिगाड़ देती है। प्रशासनिक व्यवस्थाओं की सख्ती ऐसे नाजुक माहौल में और भी गड़बड़ी पैदा कर सकती है। अब बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि अगर व्यवस्था मुस्तैद होती है, तो उसके बावजूद घटना क्यों हो जाती है जाहिर है अव्यवस्थाओं या भीड़ का पूर्वानुमान लगाने में हुई चूक तो एक कारण है ही, भीड़ के आत्मानुशासन का प्रश्न बहुत बड़ा है। इसी वजह से मात्र आलोचनाएं करके इस तरह की घटनाओं के प्रति कोई न्याय नहीं किया जा सकता। खास तौर पर पक्ष-विपक्ष के राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं ऐसे अवसर पर और दुर्भाग्यपूर्ण हो जाती हैं। वे कई बार ऐसी घटनाओं को एक नया कोण देते हुए बहस की पूरी दिशा बदल देते हैं, जबकि ऐसे में सुझाव महत्वपूर्ण होते हैं, ताकि आने वाले समय में इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। क्या ऐसा नहीं होना चाहिए कि बड़े आयोजनों से पहले मात्र व्यवस्था की मुस्तैदी पर केंद्रित न रहकर हम कहीं न कहीं आने वाली भीड़ की प्रकृति को भी समझें। सरकारी और सामाजिक तंत्र का एक हिस्सा इस ओर भी कार्य करे कि कैसे भीड़ को भी समझाया जाए कि उसमें शामिल लोग स्वयं पर नियंत्रण करने की कोशिश करें। खास तौर पर धार्मिक आयोजनों में जिस तरह का जनसमुदाय इकट्ठा होता है, उसके मन में एक ही भाव होता है कि वह किसी भी तरह दर्शन और स्नान करे और उसकी श्रद्धा-भावना पूर्ण हो। उसे प्रशिक्षित करना भी उतना ही जरूरी है, जितना व्यवस्था को अनुभवों के आधार पर सुविचारित रूप देना। भीड़ और भगदड़ के संभावित परिणामों के प्रति सचेत रहते हुए तैयारी न हुई हो, तो भगदड़ अच्छी से अच्छी व्यवस्था को ढेर कर सकती है। महाकुंभ और इससे जुड़ी व्यवस्थाओं पर पूरी दुनिया की नजर है, इसलिए यह देश की प्रतिष्ठा से जुड़ा प्रश्न भी है, इसलिए जिम्मेदारी सभी की है। बेहतर होगा कि ऐसे आयोजन को हर भारतीय अपना माने और इसके प्रति अपनी जिम्मेदारी भी महसूस करे। डुबकी लगाने तो सब जाएंगे और दूसरी तरफ व्यवस्था को डुबोने के लिए भी तत्पर रहेंगे, तो दोहरा चरित्र कैसा परिणाम देगा कौन भीड़ का हिस्सा थे, कौन हताहत हुए, इसमें किसकी कितनी चूक हुई, इस पर अनावश्यक सामाजिक-राजनीतिक बहस के बजाय, यह समझना और समझाना ही भविष्य के लिए ऐसे हादसों से बचने का मंत्र है कि आखिर किसका कितना जिम्मा है। [email protected]

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Feb 18, 2025, 04:04 IST
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