जानना जरूरी है: लोभ के परित्याग का क्या है फल? संस्कृति के पन्नों से जानें पूरी कहानी

एक व्यक्ति निर्धन था, लेकिन वह कभी लोभ में नहीं पड़ता था। वह साग खाकर और अन्न के दाने चुनकर जीवन-निर्वाह करता था। उसके पास दो पुराने वस्त्र थे और वह हाथों से पात्र का काम लेता था। अत्यंत निर्धन होते हुए भी उसने कभी पराया धन नहीं लिया। एक दिन भगवान ने उसकी परीक्षा लेने के लिए दो नए वस्त्र नदी के तट पर रखे और स्वयं दूर खड़े हो गए। वह व्यक्ति, नदी के पास से गुजरा, तो उसने नए वस्त्र देखे। आसपास कोई नहीं था, फिर भी उसने मन में लोभ नहीं किया और चुपचाप घर चला गया। भगवान ने निर्धन की परीक्षा को और कठिन कर दिया। उन्होंने एक गूलर के फल में स्वर्ण का टुकड़ा डालकर उसे निर्धन के निकट छोड़ दिया। व्यक्ति ने फल को खोला, तो भीतर रखे स्वर्ण को देखते ही सोचा, यह किसी की चाल है। यदि मैंने यह स्वर्ण ग्रहण किया, तो मेरी अलोभवृत्ति नष्ट हो जाएगी। लाभ होने से लोभ बढ़ता है। स्वर्ण को पाकर मुझे उन्माद हो जाएगा, जिससे बुद्धि भ्रमित हो सकती है। भ्रम से मोह और मोह से अहंकार उत्पन्न होता है। इन सब दुर्गुणों की मलिनता रूपी सांकल में बंधकर मनुष्य कभी ऊपर नहीं उठ सकता। यह सोचकर निर्धन व्यक्ति फल को वहीं छोड़कर अपने घर चला गया। अब भगवान, साधु का रूप धारण करके निर्धन के घर के निकट पहुंचे। उनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गई, जिसे सुनकर निर्धन की पत्नी भी साधु के पास गई और उसने साधु से अपनी निर्धनता का कारण पूछा। साधु के वेश में भगवान ने निर्धन की पत्नी को बताया, विधाता ने आज तेरे लिए बहुत धन दिया था, लेकिन तेरे मूर्ख पति ने उस धन का परित्याग कर दिया। इसलिए तेरे परिवार को आजीवन दरिद्रता भोगनी पड़ेगी। यह सुनकर निर्धन की पत्नी घर लौट गई। फिर दोनों पति-पत्नी साधु के पास आए। साधु ने निर्धन से फिर वही बात कही, तुम्हें धन प्राप्त हुआ था, फिर भी तुमने उसका त्याग कर दिया। ऐसा लगता है कि तुम्हारे भाग्य में भोग नहीं लिखा है। या तुम आजीवन अपने परिवार सहित अभावग्रस्त जीवन जियोगे। यदि ऐसा नहीं चाहते, तो तुरंत जाओ और उस फल में रखे स्वर्ण को ग्रहण कर लो। धन, सुखों का मूल है। यह सुनकर निर्धन बोला, हे साधु! धन जाल है, जिसमें फंसे हुए मनुष्य का उद्धार नहीं हो सकता। धन के अनेक दोष हैं-धन होने से चोर, बंधु-बांधव से भी भय रहता है। लोग धन हड़पने के लिए धनी व्यक्ति को मार डालने की अभिलाषा रखते हैं, धन प्राणों का घातक और पाप का साधक है। धन, काल एवं काम का स्रोत है। तो फिर धन सुखों का मूल कैसे हुआ साधु ने कहा, जिसके पास धन होता है, उसी को मित्र और बंधु-बांधव मिलते हैं। धनहीन मनुष्य को उसके परिवार वाले भी त्याग देते हैं। जो दरिद्र है, वह धर्म-कार्य भी नहीं कर सकता। यज्ञ-कार्य तथा पोखर खुदवाना आदि जैसे कर्म धन के अभाव में नहीं हो सकते। निर्धन व्यक्ति दान भी नहीं कर सकता। रोगों का उपचार, चिकित्सा, शरीर की रक्षा आदि कार्य भी धन से ही सिद्ध होते हैं। धन रहने पर तुम शीघ्र स्वर्ग की प्राप्ति कर सकते हो। तब निर्धन बोला, कामनाओं का त्याग करने से समस्त व्रतों का पालन हो जाता है। क्रोध छोड़ देने से तीर्थों का सेवन होता है। दया जप के समान है। संतोष शुद्ध धन है, अहिंसा सबसे बड़ी सिद्धि है, उपवास उत्तम तपस्या है। कौड़ी का दान मुझ जैसे व्यक्ति के लिए महादान है। पराई स्त्रियां और पराया धन मिट्टी के समान है। यही सब मेरा यज्ञ है। इसी कारण मैं पराए धन को नहीं ग्रहण करता। कीचड़ लगाकर फिर उसे धोने की अपेक्षा, कीचड़ का स्पर्श न करना ही बेहतर है। निर्धन के यह कहते ही आकाश से एक विमान उतर आया। निर्धन ने देखा कि साधु के स्थान पर भगवान विष्णु खड़े थे। भगवान, निर्धन से बोले, मैं विष्णु हूं और तुम्हारे धर्म की परीक्षा लेने के लिए आया था। अब तुम परिवार सहित इस विमान में बैठो और अनंत काल तक स्वर्ग में पुण्यों का भोग करो। इस प्रकार, उस निर्धन को लोभ का परित्याग करने का फल यह मिला कि उसने अनंत काल तक स्वर्ग का भोग प्राप्त किया।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Apr 20, 2025, 06:17 IST
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