विचार : क्या हम कुछ नया नहीं कर सकते, जो बदल दे दुनिया के काम करने का तरीका

पिछले दिनों केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने भारतीय स्टार्टअप परिदृश्य की तीखी आलोचना की, जिसमें उन्होंने खाद्य वितरण, सट्टेबाजी और फैंटेसी स्पोर्ट्स एप पर काफी चर्चा की, और इसकी तुलना चीन में इलेक्ट्रिक व्हीकल (ईवी), बैटरी प्रौद्योगिकी, सेमीकंडक्टर और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) की प्रगति से की। स्टार्टअप महाकुंभ में बोलते हुए गोयल ने सवाल किया कि क्या देश तकनीकी नवाचार के लिए प्रयास करने के बजाय कम वेतन वाली गिग नौकरियों से संतुष्ट है। हम आइसक्रीम बनाना चाहते हैं या सिलिकॉन चिप क्या हम सिर्फ खुदरा व्यापार के लिए यहां हैं उन्होंने स्टार्टअप से सार्थक नवाचार करने का आग्रह करते हुए ये सवाल पूछे। केंद्रीय मंत्री गोयल की इस टिप्पणी की बहुत आलोचना हुई, लेकिन उन्होंने अपनी बात बहुत ही सटीक और उचित तरीके से कही। उनकी चिंता को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है। उनकी टिप्पणी में कहीं कोई अपमानजनक बात नहीं थी। वह सही हैं और स्टार्टअप/नवोन्मेषकों की अगली पीढ़ी को प्रोत्साहित करना उनका काम है। आलोचकों को उनकी टिप्पणी के मंतव्य को समझना चाहिए। इसे आलोचना के बजाय रचनात्मक सुझाव के रूप में लेना चाहिए। ठीक है कि शुरू में आप नीचे लटके फलों को तोड़ते हैं, फिर जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, पेड़ की ऊंची शाखाओं तक पहुंचने के लिए थोड़ी ऊंची कूद लगानी ही पड़ती है। केंद्रीय मंत्री एकदम से छलांग लगाने के लिए नहीं कह रहे हैं, बल्कि वह जितनी जल्दी संभव हो सके, कंफर्ट जोन से बाहर निकलने के लिए कह रहे हैं। याद रखिए, भारत को अपने गंवाए हुए समय की भरपाई करनी है और हमारे पास गंवाने के लिए समय नहीं है। मनुष्य ने जब पहली बार एक लकड़ी को पहाड़ी से लुढ़कते देखा, तो उसने पहिये के बारे में सोचा! और फिर बैलगाड़ी एवं रथ के लिए पहिये का आविष्कार किया गया। उसके बाद से लगातार उसमें सुधार होते रहे और 1950 के दशक तक, ट्यूबलेस टायर, जो तार की वैकल्पिक परतों से मजबूत किए जाते थे, नए ऑटोमोबाइलों में मानक उपकरण बन गए। पश्चिम में लोग एकसाथ अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रहे हैं और एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में विचारों का अनुकूलन हो सकता है। हमें भी ऐसा करना चाहिए। हमें व्यवस्था, इकोसिस्टम या देश को दोष नहीं देना चाहिए। बहुत से लोगों ने बहुत कुछ किया, बहुत कुछ बनाया, बहुत कुछ कमाया और अकेले ही बहुत सारे रोजगार पैदा किए, उन्होंने मुश्किलों के बावजूद काम किया। समस्याएं थीं, लेकिन उन्होंने कभी दूसरों को दोष नहीं दिया। वे ऐसे लोग थे, जो साहसिक तरीके से सोचते थे। उदाहरण के लिए, स्ट्रिंग ट्रिमर, एके-47, रॉलिंग सूटकेस, ऑटोमेटिक टेलीफोन एक्सचेंज, होंडा मोटर्स, शॉपिंग मॉल आदि को देख सकते हैं, जिनके पीछे वन मैन आर्मी काम कर रही थी। हमारे देश में इस साहसिक सोच की कमी है। जरूरत पैसों की नहीं, नए विचार की है। आइडिया से आप पैसे कमा सकते हैं। धन अच्छे विचारों के पीछे भागता है। आप पूरे स्टार्टअप के साथ उद्यमी एवं नवाचार शृंखला को एक ही बार में नहीं साध सकते। यह गलत होगा। बेशक उन्हें सह-अस्तित्व की आवश्यकता है, लेकिन उनके निवेश और निवेश पर रिटर्न में परस्पर अनन्यता होनी चाहिए। साथ ही सरकार, निवेशकों और नवप्रवर्तकों को मूल्य शृंखला में यथाशीघ्र आगे बढ़ने की भी आवश्यकता है। अमेरिकी उद्यम प्रणाली और उनके आविष्कार के प्रयास कल ही नहीं हुए। वे दो बड़े विश्वयुद्धों, अवसादों, मंदी और दशकों तक बेरोजगारी से गुजरे। हमें अपना रास्ता खुद ही तलाशना होगा। हां, दूसरों से सीखा जरूर जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण है सोचना, कल्पना करना, और अवलोकन करना। आज अमेजन, गूगल और स्पेस एक्स सभी एक साथ मौजूद हैं और इनोवेशन/स्टार्टअप स्पेक्ट्रम के दो चरम छोर पर हो सकते हैं। अमेजन लंबे समय तक घाटे में रहा। पर धीरे-धीरे धैर्य के साथ आगे बढ़ा, और आज बड़ा बाजार बन गया है। हमने बीपीओ उद्योग से बहुत पैसा कमाया है और पश्चिम की बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियों की सेवा करते हुए स्थानीय मांगों को भी पूरा किया है। बीपीओ सफल रहा। इससे हमारी अर्थव्यवस्था को भी लाभ हुआ। निराशा सॉफ्टवेयर क्षेत्र में है, जो आज गहन प्रौद्योगिकी और उचित प्रौद्योगिकी स्पेक्ट्रम के बीच में खड़ा है। आप खुद को छोड़कर किसी और को दोष नहीं दे सकते। हम दूसरों के लिए प्रोग्रामिंग करके खुश थे, यह जानते हुए कि हम विशाल मशीन में मात्र एक पुर्जा थे। हमारे पास करीब 20 लाख सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल्स हैं। महिंद्रा सत्यम, टीसीएस, एचसीएल और इन्फोसिस काफी हो सकते हैं। लेकिन क्या हमने एक भी ऐसा सॉफ्टवेयर उत्पाद बनाया है, जिसने दुनिया के काम करने के तरीके को बदल दिया हो इसका जवाब है, नहीं। ट्विटर आईआईटी, दिल्ली या आईआईटी, बॉम्बे से क्यों नहीं निकल सका सिलिकॉन वैली में आधे से ज्यादा भारतीय इंजीनियर हैं और नासा में भी। गूगल, फेसबुक, यूट्यूब, ट्विटर (अब एक्स) महान आविष्कारों के उदाहरण हैं। इनके आविष्कारकों ने कभी सिस्टम को दोष नहीं दिया। गूगल के संस्थापक लैरी पेज और सर्गेई ब्रिन ने भले ही काफी संपत्ति अर्जित कर ली है, लेकिन शुरुआत में उन्हें वित्तीय संघर्षों का सामना करना पड़ा, खासकर जब गूगल एक स्टार्टअप था। उन्होंने केवल मुनाफे पर ध्यान देने के बजाय अनुसंधान और प्रौद्योगिकी पर ध्यान दिया। यही वह चीज है, जो हमें सीखने की जरूरत है। क्या कोई अनुमान लगा सकता है या कल्पना कर सकता है कि गूगल, फेसबुक, ट्विटर जैसा अगला गेम चेंजर कौन होगा और कौन नया आइडिया लेकर आएगा फिर से कोई पश्चिमी देश कैलिफोर्निया में या चेन्नई में बैठा कोई भारतीय ज्यादातर विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि हम कॉपी पेस्ट का काम कर रहे हैं। आखिरकार फ्लिपकार्ट भी तो अमेजन की हूबहू नकल ही है। और फूड एप या कैब एप भी। ओहक्या हम कुछ नया नहीं कर सकते! अमेरिका के 34 करोड़ दिमाग की तुलना में हमारे पास 145 करोड़ दिमाग हैं। तराजू का पलड़ा हमारे पक्ष में झुका है। मार्टिन लूथर किंग, जूनियर ने कहा था, यदि तुम उड़ नहीं सकते, तो दौड़ो। दौड़ नहीं सकते, तो चलो। यदि चल नहीं सकते, तो रेंगो। चाहे जो भी करो, तुम्हें चलते तो रहना ही होगा।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Apr 10, 2025, 06:40 IST
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