तकनीक : एआई को लेकर इतनी जल्दबाजी क्यों, पहले चिंताओं का निवारण जरूरी
तेजी से बढ़ रही तकनीक कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) पर पेरिस में शिखर बैठक कर दुनिया भर के वैज्ञानिक-नेता अपने घरों को लौटे ही थे कि खबर आई कि दक्षिण कोरिया ने हाल ही में सबसे ज्यादा चर्चा में आए चीनी एआई चैटबॉट डीपसीक पर पाबंदी लगा दी। हालांकि, दक्षिण कोरिया से पहले डीपसीक अमेरिका और भारत समेत करोड़ों लोगों के स्मार्टफोन और कंप्यूटरों में आ चुका है। कहीं निजता का खतरा है, तो कहीं डीपफेक में इस्तेमाल के लिए डाटा उड़ाने से जुड़ी चिंता है। एआई को लेकर सबसे ज्यादा फिक्र शिक्षा जगत को है। शिक्षा से सरोकार रखने वाले विशेषज्ञों को लग रहा है कि अगर एआई की मुश्कें कसी नहीं गईं, तो मौलिकता और बौद्धिक विकास की रेल को पटरी से उतरने में देर नहीं लगेगी। कुछ लोगों का सोचना है कि पाबंदियां एक अरसे तक ही असर दिखाएंगी। आगे चलकर हमें एआई से उसी तरह तालमेल बिठाना होगा, जैसा किसी जमाने में कैल्कुलेटर, कंप्यूटर और इंटरनेट से बिठाना पड़ा। विज्ञान और चिकित्सा जगत में एक नियम कि कोई भी नई खोज आम जनता के सामने तब तक नहीं लाई जानी चाहिए, जब तक कि उसके दुष्प्रभावों का सटीक आकलन नहीं हो जाए। लेकिन एआई को अपनाने को लेकर भारत समेत दुनिया के कई देशों में एक किस्म का उतावलापन दिख रहा है। वहीं, निजी तकनीकी कंपनियों को इसमें अपना मुनाफा नजर आ रहा है। हाल के पांच वर्षों में तकनीकी करिश्मे की बदौलत संभव हुई पढ़ाई के एक प्रमुख उदाहरण-ऑनलाइन शिक्षा को देखें, तो पता चलता है कि इससे कितनी बड़ी समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। कोरोना महामारी के दौरान शिक्षा का इकलौता विकल्प कंप्यूटर, लैपटॉप या स्मार्टफोन के जरिये पढ़ाई करना व कराना था। मजबूरी में अपनाए गए इस विकल्प के नतीजे में जो पीढ़ी अगली कक्षाओं में गई, उसके लिए कोविड पीढ़ी जैसे जुमले गढ़े गए। यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को ने ऑनलाइन लर्निंग पर सवाल उठाते हुए कहा था कि तकनीकी समाधानों का जल्दबाजी में लागू होना त्रासदी थी। दूसरी ओर, शिक्षा बोर्डों, विश्वविद्यालयों और खुद सरकारों के सामने ऐसी क्या मजबूरी है कि वे छात्रों को एआई की जानकारी से लैस करना चाहते हैं। दावा है कि इसके पीछे एआई व डाटा एल्गोरिदम से जुड़ी तकनीकी व इंटरनेट कंपनियों का दिमाग है। ये कंपनियां अपने कारोबारी मकसद के लिए एआई से जुड़ा डाटा पैदा करके उसका इस्तेमाल करना चाहती हैं, ताकि एल्गोरिदम को उनकी जरूरतों के हिसाब से डिजाइन कर सकें। यूनेस्को के विशेषज्ञ मानोस एंटोनिनिस का तर्क है कि इन कंपनियों का ध्यान शिक्षा से ज्यादा मुनाफे पर है। इसके लिए ये कंपनियां सरकारों और शिक्षा जगत को एआई के लिए लुभा रही हैं और इसके लिए बेहद सस्ती दरों पर एआई एप और संबंधित तकनीकें बेचकर उन्हें अपने झांसे में ले रही हैं। सवाल है कि क्या शिक्षा जगत में एआई के कुछ फायदे भी हैं। अगर एक टूल (औजार) के रूप में देखा जाए, तो एआई के लाभ कुछ उसी तरह के हैं, जैसे कि एक हथौड़े के होते हैं। जब तक वह सही हाथों में है और उसका सही इस्तेमाल हो रहा है, तब तो हालात ठीक कहे जा सकते हैं। लेकिन अकुशल व्यक्ति के हाथों में इसके पहुंचने का मतलब है कि उस हथौड़े से वह अपना या किसी और का सिर भी फोड़ सकता है। उदाहरण के तौर पर, विश्वविद्यालयों में शोध पत्र लिखने से संबंधित कामकाज लिया जा सकता है। लेकिन क्या इससे शोधार्थियों के ज्ञान और मानसिक स्तर में कोई इजाफा होता है। इसका जवाब यह है कि सभी एआई टूल अकादमिक साहित्यिक चोरी को वांछित बना देते हैं। अगर पूछा जाए कि एक आईटी मुल्क के तौर पर दुनिया में काफी दबदबा रखने वाले हमारे देश भारत के शिक्षा जगत में एआई को लेकर क्या रुख अपनाया जाना चाहिए। इस सवाल के जवाब में विकसित देशों के उदाहरण देना प्रासंगिक होगा। एक शोध के मुताबिक अमेरिका में 94 फीसदी शिक्षक एआई के विरोध में हैं। वहीं फ्रांस में इसी तरह की एक पहल के रूप में जब गृहकार्य करने के लिए होमवर्क एप एमआईए लाने की घोषणा हुई, तो इसके समर्थन-विरोध में वहां राजनीतिक संकट की स्थिति बन गई। अंततः इस योजना को रद्द कर दिया गया। ब्रिटेन में भी इसी तरह का एक एआई एप स्पार्क्स लाया गया, तो तमाम अभिभावकों ने इसे लेकर अपनी नाराजगी जताई। इसकी बड़ी वजह यह बताई गई कि ये ज्यादातर एआई टूल या एप बच्चों को समाज से काट देते हैं। एआई की दुनिया बेशक तेज हो, लेकिन इसकी एक सबसे बड़ी हकीकत यह है कि यह सच्चाई से अलग एक ऐसी दुनिया में ले जाती है, जहां नकली चीजें असली लगती हैं और पराए ज्ञान को लोग अपना मानकर किसी गफलत के शिकार हो सकते हैं।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Feb 27, 2025, 06:49 IST
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