जानना जरूरी है: दान व तपस्या में से किसका फल बड़ा? संस्कृति के पन्नों से जानें
एक दिन महर्षि कात्यायन ने सारस्वत मुनि के चरणों में बैठकर प्रश्न किया, 'भगवन! मेरे मन में एक संशय है। कृपा उसे दूर कीजिए। दान और तपस्या में कौन-सा कार्य अधिक कठिन है और इनमें से कौन परलोक में बड़ा फल देने वाला है' सारस्वत जी ने मंद मुस्कान के साथ उनकी ओर देखा और बोले, 'मुनिश्रेष्ठ। ध्यान से सुनो। इस धरती पर दान से बढ़कर कोई कठिन कार्य नहीं है। लोग समझते हैं कि तपस्या कठिन है, परंतु सच्चाई यह है कि धन छोड़ना सबसे बड़ा त्याग है। यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है और सभी इसका अनुभव करते हैं।' कात्यायन चकित होकर बोले, 'गुरुदेव। धन का त्याग करना इतना कठिन क्यों माना गया है' सारस्वत जी ने समझाते हुए कहा, 'धन के लिए मनुष्य कितना मोह करता है। लोग प्राणों की परवाह किए बिना समुद्र पार करते हैं, घने जंगलों और ऊंचे पहाड़ों में भटकते हैं। कोई-कोई धन कमाने के लिए दूसरों की चाकरी करता है, जिसे शास्त्रों ने श्वान-वृत्ति के समान माना है। कुछ लोग खेती करते हैं, लेकिन उसमें हिंसा होती है और परिश्रम भी बहुत होता है। इस प्रकार, बड़ी कठिनाई से, प्राणों से भी प्यारा धन जब अपने हाथों से उठाकर किसी दूसरे को देना पड़ता है, तो वही दान कहलाता है। बताओ, इससे कठिन और क्या हो सकता है' कात्यायन ने गंभीर स्वर में पूछा, 'सचमुच, यह तो बड़ा भारी त्याग है। परंतु गुरुदेव, क्या दान करने से धन घट नहीं जाता' सारस्वत मुस्कराए और बोले, 'नहीं! इसके विपरीत दिया गया धन घटत्ता नहीं, बल्कि बढ़ता है, जैसे कुएं से पानी निकालने पर और अधिक स्वच्छ जल उमड़ आता है। वही धन वास्तव में मनुष्य का होता है, जिसे वह भोग ले या दान कर दे। मृतक के पीछे बचा धन तो और लोग ही उड़ा देते हैं।' कात्यायन ने कहा, 'गुरुदेव, याचक तो बार-बार आकर तंग करता है। इसमें दाता का उपकार कहां हुआ' सारस्वत बोले, 'याचक ही तो सच्चा गुरु है। वह हमारे चित्त का दर्पण बनकर हमें भीतर से स्वच्छ करता है। जब वह 'देहि' कहता है, तो यह संकेत देता है कि दान न करने वाले की दशा याचक जैसी ही दयनीय होती है। याचक तो यहीं रह जाता है, पर दाता तो दान के बल पर ऊंचे लोकों में जाता है। इसलिए याचक दाता पर उपकार करता है, न कि बोझ बनता है। कात्यायन ने फिर अगला प्रश्न पूछा, 'तो क्या जो लोग दान नहीं करते, वे सब दुखी रहते हैं' सारस्वत जी ने सिर हिलाकर कहा, 'हां, जो लोग धनवान होकर भी दान नहीं करते और तपस्या से भागते हैं, वे दरिद्र, रोगी, मूर्ख और दूसरों के सेवक बनकर दुख भोगते हैं। ऐसे लोगों का जीवन व्यर्थ है। सैकड़ों में कोई वीर हो सकता है, हजारों में कोई पंडित, लाखों में कोई वक्ता किंतु सच्चा दानी मिलना सबसे कठिन है।' सारस्वत मुनि ने आगे कहा, 'गौ, ब्राहमण, वेद, सती स्त्री, सत्यवादी, लोभ रहित और दानशील पुरुष इन सात के सहारे यह पृथ्वी टिकी हुई है। उशीनर देश के राजा शिवि ने धर्म की रक्षा के लिए अपना शरीर तक अर्पित कर दिया। विदेह नरेश निमी ने पूरा राज्य, परशुराम जी ने सारी पृथ्वी और राजा गय ने नगरों सहित संपूर्ण भूमि ब्राध्मणों को दान कर दी। यहां तक कि जब वर्षा नाहीं हुई और प्रजा अकाल से त्रस्त हुई, तब वशिष्ठ जी ने अपने तपोबल से सब प्राणियों का पालन किया। पांचाल नरेश ब्रह्मदत्त ने श्रेष्ठ ब्राह्मणों को शंखनिधि दान देकर स्वर्गलोक पाया। इन सब राजर्षियों ने दान और भक्ति के बल पर रुद्रलोक की प्राप्ति की। उनकी कीर्ति आज तक अमर है। सारस्वत जी की बातें सुनकर कात्यायन प्रसन्न हो गए। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा, 'गुरुदेव। आपने मेरे सब संदेह दूर कर दिए। मुझे समझ आया कि दान ही सच्चा धर्म है और यही भगवान शंकर को प्रसन्न करने का मार्ग है। मैं भी अब से इस पथ पर चलूंगा।' सारस्वत मुनि ने कात्यायन मुनि से कहा, 'यही सार है। दान ही सबसे बड़ा धर्म और सबसे कठिन तप है। इसे अपनाओ और दूसरों को भी इस मार्ग पर चलाने के लिए प्रेरित करो।' यह सुनकर कात्यायन का मोह दूर हो गया और वे भी दान मार्ग के दृढ़ अनुयायी हो गए।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Oct 12, 2025, 05:19 IST
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