Supreme Court: अनुसूचित जनजाति दर्जा मामलों में 'सुप्रीम' फैसला, स्वतंत्रता-पूर्व दस्तावेजों को बताया अहम सबूत

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त करने के दावों के मामले में स्वतंत्रता-पूर्व दस्तावेज के लिए अधिक प्रामाणिक मूल्य निर्धारित किया जाना चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि हर मामले में जाति या जनजाति के दावे की सत्यता के निर्धारण की प्रक्रिया में आत्मीयता परीक्षण को एक अनिवार्य हिस्सा नहीं माना जा सकता। भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) बीआर गवई, जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस के विनोद चंद्रन की पीठ ने बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ योगेश माधव मकलवाड़ की अपील स्वीकार करते हुए यह बात कही। अपने फैसले में न्यायालय ने अपीलकर्ता को कोली महादेव जनजाति से संबंधित घोषित किया और जांच समिति को छह सप्ताह के भीतर उसे जाति वैधता प्रमाण पत्र जारी करने का निर्देश दिया। स्वतंत्रता-पूर्व के उस दस्तावेज को विश्वसनीय मानते हुए, जिसमें यह प्रमाणित किया गया था कि अपीलकर्ता के दादा जलबा मालबा मकलवाड़, कोली महादेव जनजाति के थे, पीठ ने कहा, हमारा विचार है कि उक्त दस्तावेज को अधिक प्रामाणिक मूल्य दिया जाना चाहिए था। हालांकि, पूर्वधारणाओं और मान्यताओं के आधार पर उक्त दस्तावेज पर विश्वास नहीं किया गया है। ये भी पढ़ें:-Stray Dogs Case: लावारिस कुत्ते मामले में विरोधी फैसले आए, आज बड़ी पीठ में सुनवाई; CJI ने इन तीन जजों को चुना हाईकोर्ट ने जाति संबंधी दावे किए थे खारिज 2019 में अपीलकर्ता ने जाति प्रमाण पत्र के सत्यापन के लिए आवेदन किया क्योंकि उसने नीट यूजी परीक्षा में 720 में से 334 अंक प्राप्त किए थे और मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के लिए पात्र हो गया था। उसने हाईकोर्ट में एक रिट याचिका दायर की, लेकिन जाति जांच समिति ने उसके और उसके पिता के दावे को अमान्य कर दिया और विभिन्न दस्तावेजों को खारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने जांच समिति के 24 जून, 2019 के आदेश को बरकरार रखा था, जिसमें अपीलकर्ता के जाति संबंधी दावे को अमान्य कर दिया गया था। 1943 के दस्तावेज में दादा की जाति कोली महादेव अपीलकर्ता के वकील का कहना था कि समिति और हाईकोर्ट ने अपीलकर्ता के दावे को खारिज करके घोर भूल की है क्योंकि उसके दादा के स्कूल प्रवेश और अवकाश पत्र, जो 10 अक्तूबर, 1943 को दर्ज किया गया था, में स्पष्ट रूप से उसकी जाति कोली महादेव बताई गई थी। यह दस्तावेज स्वतंत्रता पूर्व का होने के कारण अधिक प्रमाणिक मूल्य का होना चाहिए था। इसके विपरीत, राज्य के वकील ने तर्क दिया कि 1943 का तथाकथित दस्तावेज संदेह से मुक्त नहीं है क्योंकि हस्तलेखन पर दी गई राय अनिर्णायक है। उन्होंने यह भी कहा कि अपीलकर्ता आत्मीयता परीक्षण में विफल रहा है। ये भी पढ़ें:-Maharashtra: मानहानि मामले में राहुल गांधी पर झूठी गवाही का आरोप, शिकायतकर्ता ने कोर्ट में दाखिल की अर्जी आत्मीयता परीक्षण लिटमस टेस्ट नहीं हालांकि, अदालत ने कहा कि आत्मीयता परीक्षण जाति के दावे का फैसला करने के लिए कोई लिटमस टेस्ट नहीं है। पीठ ने कहा, समय में बदलाव, प्रवास, आधुनिकीकरण, आदिवासी आबादी के लोगों के समाज की मुख्यधारा में शामिल होने के साथ चीजें बदली हैं। दादा के रिकॉर्ड में कथित जोड़-तोड़ के संबंध में पीठ ने कहा, हमने उक्त दस्तावेज की आवर्धक कांच से जांच की है। हमारे लिए यह स्पष्ट है कि प्रविष्टि में लिखे गए शब्द कोली महादेव एक ही स्याही और एक ही लिखावट में हैं। इसलिए, हम पाते हैं कि उक्त प्रविष्टि में जोड़-तोड़ की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Aug 14, 2025, 06:48 IST
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