बिहार चुनाव परिणाम: भाजपा को चुनाव जीतना आता है, जनादेश इसका प्रमाण
बिहार का जनादेश कई मायनों में ऐतिहासिक है। राजग गठबंधन ने सत्ता विरोधी लहर को धता बताते हुए लगातार तीसरी बार सत्ता में वापसी की और 2010 के अपने सर्वोच्च प्रदर्शन के लगभग बराबर की जीत दर्ज की। सत्तारूढ़ गठबंधन के पक्ष में यह प्रबल लहर रिकॉर्ड 67 फीसदी मतदान के रूप में सामने आई, जो बिहार में 75 वर्षों में अब तक का सबसे अधिक मतदान था। महिला मतदाताओं का मतदान प्रतिशत पुरुष मतदाताओं की तुलना में करीब 10 फीसदी अधिक था, जो एक बार फिर परिणामों को प्रभावित करने की उनकी क्षमता को दर्शाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आगे बढ़कर चुनावी अभियान का नेतृत्व किया और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने परदे के पीछे से रणनीति बनाई, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 'मैन ऑफ द मैच' बनकर उभरे हैं। 2020 के उस झटके से उबरकर, जब राजग की आंतरिक कलह के बीच उनकी पार्टी अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई थी, उन्होंने लगभग भाजपा के बराबर सीटों के साथ वापसी की है, जिससे साबित होता है कि 20 साल सत्ता में रहने के बाद भी वह बिहार में सबसे लोकप्रिय चेहरा बने हुए हैं। यह उस नेता के लिए कोई मामूली उपलब्धि नहीं है, जो अपने स्वास्थ्य को लेकर उठे सवालों और भाजपा द्वारा राजग के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में आधिकारिक तौर पर समर्थन देने से इन्कार के बाद लगभग अदृश्य हो गया था। लेकिन जैसे-जैसे बिहार में चुनावी बुखार चढ़ा, कहानी बदल गई। अचानक नीतीश कुमार अपने शासन के प्रति नकारात्मक भावनाओं के अभाव में एक ऐसे नेता के रूप में सहानुभूति के हकदार बन गए, जो शायद अपना आखिरी चुनाव लड़ रहा था। वह दो दशकों से मुख्यमंत्री के रूप में अति पिछड़े वर्गों एवं महिलाओं के वफादार वोट बैंक के अटूट समर्थन के बारे में बढ़ती चर्चा के बीच चुनाव का केंद्र बन गए। चुनाव से ठीक पहले चतुराई के साथ एक करोड़ से अधिक महिलाओं को 10,000 रुपये की सहायता राशि देने से नीतीश कुमार के लिए चुनाव जीतना सुनिश्चित हो गया। हालांकि नीतीश कुमार को राजग का आधिकारिक मुख्यमंत्री चेहरा घोषित नहीं किया गया था, लेकिन नई सरकार का नेतृत्व किसी और के हाथों में होने की कल्पना करना मुश्किल है, खासकर जद (यू) की शानदार वापसी के बाद। नीतीश कुमार कोई एकनाथ शिंदे नहीं हैं और अगर भाजपा अपने ही किसी नेता पर जोर देकर राजग की नैया को हिला दे, तो यह आश्चर्यजनक होगा, क्योकि जद (यू) केंद्र में मोदी सरकार का एक अहम आधार स्तंभ है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी के वोट चोरी के आरोप का कोई खास असर नहीं हुआ। इसके साथ ही प्रशांत किशोर की नवगठित जन सुराज पार्टी बुरी तरह विफल हो गई, क्योंकि उसके ज्यादातर उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। अपनी ध्वस्त महत्वाकांक्षाओं के मलबे का जायजा लेते हुए किशोर शायद इस बात से कुछ राहत महसूस कर सकते हैं कि उन्होंने चुनावी आख्यान को कुछ हद तक प्रभावित किया। चूंकि उन्होंने बिहार की भीषण गरीबी का मुद्दा लगातार उठाया, इसलिए दोनों प्रतिस्पर्धी गठबंधनों (राजग और महागठबंधन) को रोजगार सृजन और स्वास्थ्य एवं शिक्षा के बुनियादी ढांचे के निर्माण जैसे रोजी-रोटी के मुद्दों पर अपने अभियान गढ़ने पड़े। यहां तक कि भाजपा ने भी अवैध प्रवास के मुद्दे पर ध्रुवीकरण के नारे लगाने के अपने शुरुआती प्रयासों को छोड़ दिया। इस चुनाव से खासकर विपक्ष के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातें उभरकर सामने आई हैं, जिसे इस करारी हार के बाद प्रासंगिक बने रहने के लिए फिर से रणनीति बनानी होगी। पहली बात तो यह है कि भाजपा और उसके सहयोगियों ने चुनाव जीतने की कला में महारत हासिल कर ली है। उन्होंने उच्च मतदान प्रतिशत को सत्ता समर्थक लहर में बदल दिया है, और इस पारंपरिक राजनीतिक तर्क को ध्वस्त कर दिया है कि बढ़ा हुआ मतदान सत्ता विरोधी होता है। दूसरी बात, चुनावी नतीजों को तय करने में महिलाओं की अहम भूमिका है। देश भर में बड़ी संख्या में महिलाएं मतदान के लिए निकल रही हैं, अक्सर उनकी संख्या पुरुषों से ज्यादा होती है। महिला-केंद्रित योजनाएं चुनावों में विजयी रही हैं, खासकर उन पार्टियों के लिए जो सिर्फ वादे नहीं, बल्कि काम पूरा करती हैं। तीसरी बात है सामंजस्य, एकता और निर्बाध वोट हस्तांतरण, खासकर जब गठबंधन में चुनाव लड़ रहे हों। हालांकि राजग में नीतीश की भूमिका को लेकर शुरुआत में मतभेद थे, लेकिन जैसे ही भाजपा को जमीनी स्तर पर नीतीश कुमार के पक्ष में माहौल का एहसास हुआ, उसने तुरंत अपनी रणनीति बदल दी। उसने उन्हें मनचाही सीटें दीं और उन्हें फिर से चर्चा में ला दिया। इसके विपरीत, महागठबंधन अपने आप में ही युद्धरत दिख रहा था। सहयोगी दल सीटों के बंटवारे पर सहमत नहीं हो पाए और आधा दर्जन से ज्यादा सीटों पर उन्होंने 'दोस्ताना मुकाबला' लड़ा। मुकेश साहनी की विकासशील इन्सान पार्टी (वीआईपी) को साथ लेने का फैसला उल्टा पड़ गया। उनकी पार्टी न सिर्फ अपनी सभी 12 सीटों पर चुनाव हार गई, बल्कि निषाद समुदाय के वोटों को गठबंधन सहयोगियों के पक्ष में हस्तांतरित करने में भी नाकाम रही। कांग्रेस का दयनीय प्रदर्शन एक चेतावनी है। बिहार में अपना कोई संगठन न होने के कारण, तेजस्वी यादव और राजद का साथ देने के बजाय उसने शुरू से अंत तक खेल बिगाड़ा। पहले तो राहुल गांधी ने वोट चोरी के मुद्दे पर तेजस्वी के बजाय लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश की। फिर महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में तेजस्वी को समर्थन देने पर वह आखिर तक चुप रहे। सीट बंटवारे की बातचीत में कांग्रेस ने अनावश्यक अहंकार दिखाते हुए जरूरत से ज्यादा सीटों की मांग की। अंततः, उसने 61 सीटों पर चुनाव लड़ा और सिर्फ छह सीटें ही जीत पाई। राजद को भी आगे काफी आत्ममंथन करना होगा। हालांकि ऐसा प्रतीत होता है कि उसने अपना मूल मुस्लिम-यादव वोट आधार बरकरार रखा है, लेकिन वह अपने सामाजिक गठबंधन का विस्तार करके अन्य जातियों को शामिल करने में विफल रही है। इस बार बिहार चुनाव से उम्मीद थी कि यह जातिगत समीकरण को तोड़ देगा, जिसमें राज्य 20 वर्षों से जकड़ा हुआ है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हालांकि प्रचार के दौरान बिहार को गरीबी से उबारने और इसे देश के बाकी हिस्सों में मजदूरों के मुख्य आपूर्तिकर्ता राज्य से कुशल श्रम और रोजगार के अवसरों का केंद्र बनाने के कई वादे किए गए। जनता का फैसला इसी उम्मीद पर टिका है।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Nov 15, 2025, 03:01 IST
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