वैश्विक अर्थव्यवस्था: वैश्वीकरण की रफ्तार थमने के मायने
करीब चार सदियों से वैश्विक अर्थव्यवस्था लगातार गहराते एकीकरण के रास्ते पर आगे बढ़ रही है, जिसे दो विश्वयुद्ध भी पूरी तरह से पटरी से नहीं उतार पाए। ग्लोबलाइजेशन (वैश्वीकरण) का यह लंबा सफर तेजी से बढ़ते अंतरराष्ट्रीय व्यापार और निवेश से ताकत पाता रहा। इसके साथ ही, सरहदों के पार बड़े पैमाने पर इन्सानों की आवाजाही और परिवहन व संचार तकनीक में क्रांतिकारी तब्दीलियों ने इस पूरे सफर को नई दिशा और गति दी है। आर्थिक इतिहासकार जे. ब्रैडफोर्ड डीलॉन्ग के अनुसार, 1990 के स्थिर मूल्यों पर मापा गया विश्व अर्थव्यवस्था का मूल्य 1650 में, जब यह कहानी शुरू होती है, 81.7 अरब अमेरिकी डॉलर था, जो 2020 तक बढ़कर 70.3 खरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया, यानी लगभग 860 गुना वृद्धि। यह तीव्र विकास मुख्य रूप से दो ऐसे दौरों में देखा गया, जब वैश्विक व्यापार ने सबसे तेज रफ्तार पकड़ी। पहला, लंबी 19वीं सदी के दौरान, यानी फ्रांसीसी क्रांति के अंत से लेकर प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत तक और दूसरा, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, 1950 के दशक से लेकर 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी तक व्यापार उदारीकरण लगातार बढ़ता गया। हालांकि, अब यह विशाल वैश्वीकरण परियोजना पीछे हटती नजर आ रही है। बेशक ग्लोबलाइजेशन पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है, लेकिन इसकी रफ्तार जरूर थमने लगी है। क्या यह जश्न मनाने का विषय है, या चिंता का और क्या तस्वीर तब बदलेगी, जब डोनाल्ड ट्रंप और उनकी व्यापक आर्थिक उथल-पुथल पैदा करने वाली टैरिफ नीतियां समाप्त हो जाएंगी लंबे समय तक बीबीसी के आर्थिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के अनुभव से मैं यह कह सकता हूं कि ट्रंप के जाने के बाद भी हमारे पास डी-ग्लोबलाइज्ड भविष्य को लेकर चिंतित होने के ठोस ऐतिहासिक कारण मौजूद हैं। ट्रंप की टैरिफ नीतियों ने दुनिया की आर्थिक परेशानियों को और बढ़ा दिया है, लेकिन इन संकटों की जड़ वह नहीं हैं। दरअसल, उनका दृष्टिकोण उस सच्चाई को सामने लाता है, जो दशकों से धीरे-धीरे उभर रही थी, लेकिन जिसे पहले की अमेरिकी सरकारें और दुनिया के कई अन्य देश मानने से हिचकते रहे और वह सच्चाई यह है कि अमेरिका अब दुनिया की नंबर एक आर्थिक शक्ति और वैश्विक विकास के इंजन के रूप में अपने वर्चस्व के पतन की ओर बढ़ रहा है। वैश्वीकरण के आलोचक हमेशा से रहे हैं, लेकिन हाल तक वे दक्षिणपंथी की तुलना में मुख्यतः वामपंथी रहे हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब वैश्विक अर्थव्यवस्था अमेरिकी प्रभुत्व में तेजी से बढ़ी, कई वामपंथियों ने तर्क दिया कि वैश्वीकरण के लाभ असमान रूप से वितरित किए गए, जिससे अमीर देशों में असमानता बढ़ी, जबकि गरीब देशों को मुक्त बाजार नीतियों को लागू करने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह कोई नई चिंता नहीं थी। 1841 में, जर्मन अर्थशास्त्री फ्रेडरिक लिस्ट ने तर्क दिया था कि मुक्त व्यापार ब्रिटेन के वैश्विक प्रभुत्व को चुनौती देने से रोकने के लिए बनाया गया था, और उन्होंने कहा था-जब कोई महानता के शिखर पर पहुंच जाता है, तो वह उस सीढ़ी को लात मारकर गिरा देता है, जिसके सहारे वह ऊपर चढ़ता है, ताकि अन्य लोग उसके बाद ऊपर न चढ़ पाएं। अमेरिका में, वैश्वीकरण की आलोचना अमेरिकी श्रमिकों पर इसके घरेलू प्रभावों पर केंद्रित थी, यानी नौकरी छूटना और कम वेतन। इससे अधिक संरक्षणवाद की मांग उठी। हालांकि, शुरू में इसका नेतृत्व ट्रेड यूनियनों और कुछ डेमोक्रेटिक राजनेताओं द्वारा किया गया था, लेकिन धीरे-धीरे इसे कट्टर दक्षिणपंथियों का भी समर्थन प्राप्त हुआ, जिन्होंने विश्व व्यापार संगठन जैसे वैश्विक संगठनों को कोई भी भूमिका देने का इस आधार पर विरोध किया कि वे अमेरिकी संप्रभुता पर अतिक्रमण करते हैं। ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में, ये आलोचनाएं कट्टरपंथी व अत्यधिक विघटनकारी आर्थिक और सामाजिक नीतियों में बदल गई हैं, जिनके केंद्र में टैरिफ और संरक्षणवाद है। अब अमेरिकी अर्थव्यवस्था का सबसे मजबूत हिस्सा (हाई-टेक सेक्टर) चीन के भारी दबाव में है, जिसकी अर्थव्यवस्था पहले से ही जीडीपी के मामले में अमेरिका से बड़ी है। इस बीच, ज्यादातर अमेरिकी नागरिकों को स्थिर आय, महंगाई और ज्यादा असुरक्षित नौकरियों का सामना करना पड़ रहा है। जब बात अमेरिका के बदले दुनिया की अग्रणी प्रभुत्वशाली शक्ति बनने की आती है, तो बड़ी अर्थव्यवस्था वाले उम्मीदवार के रूप में यूरोपीय संघ और चीन ही हैं। लेकिन इस पर संदेह करने के मजबूत कारण हैं कि दोनों में से कोई भी यह भूमिका निभा सकता है। एकदलीय, अधिनायकवादी राजनीतिक व्यवस्था वह मुख्य कारण है कि चीन को लोकतांत्रिक देशों के बीच सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभुत्व हासिल करने में कठिनाई होगी। इस बीच यूरोप (जो वैश्विक स्तर पर अमेरिका का स्थान लेने वाला एकमात्र दूसरा दावेदार है) राजनीतिक रूप से गहराई से विभाजित है। पूर्व और दक्षिण में छोटी, कमजोर अर्थव्यवस्थाएं वैश्वीकरण के लाभों के बारे में अधिक संशयी हैं। ऐसे में, यह असंभव हो जाता है कि वर्तमान में गठित यूरोपीय संघ अपने दम पर एक नई वैश्विक विश्व व्यवस्था की शुरुआत कर सके और उसे लागू कर सके। स्पष्ट रूप से, ट्रंप प्रशासन उन अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को पुनर्जीवित करने, या यहां तक कि उनके साथ जुड़ने में कोई रुचि नहीं दिखाता है, जिन पर कभी अमेरिका का प्रभुत्व था, और जिन्होंने विश्व आर्थिक व्यवस्था को आकार देने में मदद की थी-जैसा कि अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि जेमिसन ग्रीर ने हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स में तिरस्कारपूर्वक लिखा- 'हमारी वर्तमान, अनाम वैश्विक व्यवस्था, जिस पर विश्व व्यापार संगठन का प्रभुत्व है और जिसे सैद्धांतिक रूप से आर्थिक दक्षता को बढ़ावा देने और अपने 166 सदस्य देशों की व्यापार नीतियों को विनियमित करने के लिए तैयार किया गया है, अस्थिर और अस्थायी है। अमेरिका ने इस व्यवस्था की कीमत औद्योगिक नौकरियों और आर्थिक सुरक्षा के नुकसान के रूप में चुकाई है।' हालांकि, अमेरिका अभी तक आईएमएफ से बाहर नहीं निकल रहा है, लेकिन ट्रंप प्रशासन ने उससे आग्रह किया है कि वह जलवायु परिवर्तन की चिंता को दरकिनार करते हुए, चीन के इतने बड़े व्यापार अधिशेष के लिए उसे फटकार लगाए। ग्रीर ने निष्कर्ष निकाला कि अमेरिका ने 'अपने देश की आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी जरूरतों को वैश्विक सहमति के सबसे निचले स्तर के मानक के अधीन कर दिया है।' - द कन्वर्सेशन
- Source: www.amarujala.com
- Published: Nov 11, 2025, 04:20 IST
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