Bihar Polls: बिहार बोलेगा पर बैलेट से...खामोशी की धड़कन और सत्ता का निर्णायक मोड़; पहला चरण 60 बनाम 61 का
बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण की दस्तक के साथ राजनीतिक गलियारों में यह सवाल गूंज रहा है कि इस पर यहां इतनी शांति क्यों है चुनावी होर्डिंग्स हैं, रोड शो हैं, रैलियां भी हैं, लेकिन न पुराना शोर है, न नारों का उफान, न उत्साह का बवंडर। यह खामोशी साधारण नहीं। यह रणनीति है, गणना है, और कहीं-न-कहीं 2020 की मनोदशा से बिल्कुल अलग एक तैयारी है। यह चुनाव गुस्से का नहीं, बल्कि अपनी हस्ती बताने का है। भावनाओं का नहीं, व्यावहारिकता का है। पहले चरण की 121 सीटों के चुनाव को बिहार में 60-61 कहा जा रहा है। कारण मौजूदा विधानसभा में 60 सीटें एनडीए के पास हैं और एक ज्यादा यानी 61 महागठबंधन के दलों के पास। सीटों पर वही पुराने समीकरण हैं। मुकाबला इतना तगड़ा है कि जिसका भा प्रबंधन थोड़ा बेहतर हुआ, वह ज्यादा बढ़त ले सकता है। जो गठबंधन इस चरण में बढ़त लेगा, वह दूसरे चरण के लिए मनोवैज्ञानिक बढ़त भी हासिल करेगा। बिहार में राजनीति अब सिर्फ रैली की भीड़ से नहीं, बल्कि गांव-टोले के मनोविज्ञान और साइलेंट माइक्रो-मैनेजमेंट से तय हो रही है। नेतृत्व बनाम नैरेटिव : चुप्पी की टक्कर, चेहरों की परीक्षा इस शांत चुनाव का चरित्र बिहार के मानस से अलग है। यह बहुत आक्रामक राजनीति का दौर नहीं, बल्कि मुद्दों और समीकरणों के बूते जनता के बीच गहरी घुसपैठ का चुनाव है। एनडीए ने वोटर को एक स्थिर संदेश दिया है-विकास बनाम जंगलराज। वहीं, महागठबंधन ने नौकरी बनाम ठहरा विकास से प्रतिवाद किया है। सबसे बड़ी बात है कि दो दशक सत्ता में रहने के बावजूद नीतीश कुमार अभी भी स्थिरता का प्रतीक हैं। साथ ही उनके खिलाफ किसी भी तरह का आक्रोश नहीं है, लेकिन उनकी रणनीतिक चुप्पी को विपक्ष थकान और नेतृत्व संकट की तरह पेश कर रहा है। दूसरी ओर, तेजस्वी यादव के पास युवाओं का असंतोष है, लेकिन 2020 की तरह भावनात्मक लहर और जोश उनके साथ भी नहीं दिख रहा। सियासत के मैदान में जैसे दो आवाजें टकरा रहीं हैंएनडीए की ओर से भरोसे वाला भाव दिख रहा है कि काम दिखा है-शोर की ज़रूरत नहीं। दूसरी ओर महागठबंधन ललकार रहा है कि नौकरी चाहिए, बदलाव दिख नहीं रहा। पूरे बिहार में युवा कह रहे हैं कि नौकरी चाहिए, पर सत्ता बदलने से भी मिलने का गारंटी नहीं। हालांकि तेजस्वी प्रण में हर घर से सरकारी नौकरी की बात है, पर ज्यादातर युवा इस दावे में प्राण नहीं देखते। साथ ही सवाल है कि तेजस्वी ठीक हैं, पर टीम कौन नीतीश कुमार के प्रति कोई हिकारत नहीं, बल्कि सहानुभूति है। मोदी का साथ होना और ताकत देता है। नीतीश से उम्मीद ज्यादा थी, उतना नहीं हुआ, फिर भी नीयत पर शक नहीं। भाजपा का साथ टीम मजबूत करता है। यानी नेतृत्व बनाम टीम या भरोसा बनाम प्रयोग, यही दुविधा है। महिला, अति पिछड़ा और माई इस चुनाव का केंद्र महिला वोटर हैं और नीतीश की सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी यही है। 1.35 करोड़ महिलाओं को जीविका दीदी के 10 हजार रुपये मिलने के बाद ये रिश्ता और मजबूत हो गया है। नीतीश समर्थक महिलाओं की आवाज है कि बेटी सुरक्षित है, यही काफी है। यह वाक्य पोस्टर नहीं, वोट पैटर्न की ठोस हकीकत है। सुरक्षा, योजना और घर-परिवार की स्थिरतायही महिला वोटर की त्रयी है। अति पिछड़ा और सवर्ण वोट एनडीए का आधार है और इस बार उनके अंदर भी पूछताछ है, शिकवा भी। वोटर कह रहे हैं कि दिल से नहीं, दिमाग से दबाना है बटन। युवाओं का आक्रोश और नौकरी की गारंटी के साथ तेजस्वी की टीम मैदान में है। हालांकि, मूल आधार मुस्लिम-यादव वोट बैंक है। मतलब महागठबंधन के साथ ताकत बड़ी है, पर जंगलराज का नैरेटिव अभी भी उन्हें डिफेंसिव टोन में धकेल रहा है। तो क्या ये माना जाय कि बिहार में वोट अब सिर्फ जाति नहीं तय कर रही, बल्कि उम्मीदवार की जवाबदेही और लोकल काम की प्रत्यक्ष रेटिंग तय कर रही है। इसकी परीक्षा भी इस चुनाव में होनी है, जिसमें अभी बिहार का पास होना कठिन लगता है। पीके की चुनौती प्रशांत किशोर राजनीतिक भूगोल से सामाजिक कथा लिखने की कोशिश कर रहे हैं। पर गांव-कस्बों में सवाल अभी भी वही है कि पीके सुनते हैं, पर जीतेंगे उनकी यात्रा ने मुद्दे जगाए हैं, लेकिन सत्ता की चाबी अभी भी दो गठबंधनों के बीच ही फंसी दिखती है। पीके का चुनाव न लड़ना उनके खिलाफ गया। पर, उन्हें वोट मिलेंगे जरूर, यह साफ नजर आता है। सीटों में परिवर्तन की गारंटी अभी नहीं है। हर क्षेत्र का अपना युद्धक्षेत्र सोन-कोशी : एनडीए मजबूत, पर भीतर असंतोष सारण-सीवान : महागठबंधन की जातीय पकड़, पर स्थानीय दंगे की स्मृति और बाहुबली फैक्टर। भाजपा के खिलाफ एक फैक्टर है स्थानीय जनप्रतिनिधियों के खिलाफ असंतोष। भाजपा समर्थक कहते हैं कि काम हुआ, पर विधायक नहीं दिखे। मतलब विधायक बदलना हैका नैरेटिव भाजपा के लिए खतरनाक है। यह सत्ता के भीतर की बेचैनी है और विपक्ष के भरोसे का संकट भी है। कुछ सीटों पर विरासत बनाम बाहुबली बनाम ब्रांड की जंग राघोपुर : तेजस्वी यादव महुआ : तेजप्रताप यादव मोकामा : अनंत सिंह की छाया/लालगंज : शिवानी शुक्ला प्रभाव, रघुनाथपुर : ओसामा फैक्टर, तारापुर व लखीसराय : सम्राट-विजय की प्रतिष्ठा परीक्षा खामोशी की अंतिम लकीर चुनाव की सबसे बड़ी कहानी यह है कि बिहार भावनाओं से आगे बढ़ रहा है। न नारों का उफान, न नेतृत्व का जादू। यह एक शांत, भारी और बारीक चुनाव है, जहां वोटर सोच रहा है, बोल नहीं रहा और यही इस चुनाव का सार है। इस बार लहर नहीं मुद्दों की गिनती है। अपेक्षाओं का आंकड़ा है। यह गुस्से का नहीं, हस्ती का चुनाव है और जंगलराज अब पुरानी याद नहीं, बल्कि मौन वोटर की नई तर्कशक्ति का बैरोमीटर है। यह नया बिहार है, जहां यह फैसला शोर नहीं कर रहा, खामोशी में लिखा जा रहा है।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Nov 06, 2025, 02:46 IST
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