पर्यावरण: कमजोर देशों के अस्तित्व का सवाल, ब्राजील में पेरिस समझौते पर सहमति का समय
एक बार फिर दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग की गिरफ्त से छुटकारा दिलाने के लिए सभी देश ब्राजील के बेलम में आगामी दस नवंबर को यूएन के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप-30) में एकजुट होने जा रहे हैं। दस साल पहले जब पेरिस समझौता हुआ था, तब दुनिया ने तय किया था कि हर देश को अपने उत्सर्जन में कटौती करके ग्लोबल वार्मिंग को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस के अंदर रखना है। लेकिन तमाम वादों-इरादों के बाद भी ऐसा नहीं हो सका। वर्तमान हालात में अगर सभी देश पेरिस समझौते के तहत अपने वादों को पूरी तरह से लागू करते हैं, तब भी ग्लोबल वार्मिंग तापमान में वृद्धि 2.6 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाएगी और दुनिया पेरिस-पूर्व अनुमानों की तुलना में प्रति वर्ष 57 अतिरिक्त गर्म दिनों को झेल सकती है। 2015 में पेरिस समझौते के वक्त वैज्ञानिकों का मानना था कि अगर कुछ नहीं किया गया, तो सदी के अंत तक दुनिया चार डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो जाएगी। ऐसे में, पृथ्वी पर करीब 114 'बहुत गर्म दिन' हर साल आएंगे-जब तापमान ऐतिहासिक औसत केे 90वें परसेंटाइल से ऊपर चला जाता है यानी जानलेवा गर्मी। अगर मौजूदा उत्सर्जन कटौती योजनाएं लागू होती हैं और तापमान 2.6 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रहता है, तो दुनिया ऐसे 57 दिन कम झेलेगी। मौसम अब सिर्फ बदलता नहीं, बल्कि चेतावनी देता है। पहले सारी दुनिया 2024 में असहनीय गर्मी में झुलसी, फिर 2025 बाढ़ की सौगात लेकर आया, जिसने भारत सहित नेपाल, बांग्लादेश, चीन आदि दक्षिण एशियाई देशों को अस्त-व्यस्त कर दिया। बाढ़ से सेंट्रल टेक्सास भी अछूता नहीं रहा। और अब तूफान मेलिसा जमैका में तबाही मचाने के बाद क्यूबा जा पहुंचा और द्वीप के इतिहास के सबसे तेज तूफानों में से एक बन गया। लैंसेट काउंटडाउन की ग्लोबल रिपोर्ट, क्रैडल टू ग्रेव ने साफ कह दिया है, जीवाश्म ईंधन सिर्फ जलवायु संकट की वजह नहीं हैं, ये हमारी सेहत को गर्भ से समाधि तक नुकसान पहुंचा रहे हैं। रिपोर्ट बताती है कि इनका पूरा जीवनचक्र, निकासी, रिफाइनिंग, ट्रांसपोर्ट, स्टोरेज, जलाने से लेकर वेस्ट तक, हर चरण इन्सानों की सेहत पर वार करता है-गर्भपात से लेकर बच्चों में अस्थमा, ब्लड कैंसर, स्ट्रोक, कैंसर और यहां तक कि मानसिक बीमारियां भी। जीवाश्म ईंधन का जहर हर उम्र को छू रहा है। ऐसे में, ऐतिहासिक पेरिस समझौता अब भी दुनिया को एक सुरक्षित जलवायु की दिशा में मोड़ सकता है, बशर्ते रफ्तार तेज हो। मगर इस जंग में सबसे अहम हथियार यानी क्लाइमेट एडेप्टेशन फाइनेंस, अब भी पीछे छूट रहा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की नई रिपोर्ट एडेप्टेशन गैप रिपोर्ट 2025 ने चेताया है कि विकासशील देशों को जलवायु प्रभावों से खुद को बचाने के लिए 2035 तक हर साल कम से कम 310 अरब डॉलर की जरूरत होगी। लेकिन हकीकत यह है कि 2023 में यह मदद केवल 26 अरब डॉलर रही, यानी 12 से 14 गुना का लंबा फासला। यूएन महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा कि जलवायु प्रभाव हर दिन तेज हो रहे हैं, लेकिन एडेप्टेशन फाइनेंस उस रफ्तार से नहीं बढ़ रहा। अगर यही रुझान जारी रहा, तो ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट का लक्ष्य यानी 2019 के स्तर से एडेप्टेशन फाइनेंस को दोगुना कर 2025 तक 40 अरब डॉलर तक पहुंचाने का वादा, अधूरा रह जाएगा। क्लाइमेट रेजिलिएंट व लो-कार्बन डेवलपमेंट के लिए पैसे की दरकार है। लेकिन यूएनईपी ने आगाह किया है कि अगर यह पैसा कर्ज के रूप में आया, तो कमजोर देशों पर नया बोझ बढ़ जाएगा। विकासशील देशों के लिए यह वक्त महज एडेप्टेशन का नहीं, बल्कि सर्वाइवल का है।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Nov 07, 2025, 04:45 IST
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