Karnal News: जैव विविधता खोई तो खत्म हो जाएगा प्रकृति का अनमोल खजाना

विश्व जैव विविधता दिवस पर विशेषपशु पक्षियों की कई नस्लों के विलुप्त होने का भय, करना पड़ रहा संरक्षितदेव शर्माकरनाल। भावी पीढ़ी को यदि सुरक्षित भविष्य देना है तो जैविक विविधता पर ध्यान देना ही होगा। अन्यथा प्रकृति प्रदत्त कई पशु, पक्षी, पेड़, वनस्पतियां, जीवजंतु सहित प्रकृति का खजाना खत्म हो जाएगा। अधिक पैदावार की भागदौड़ में प्रकृति की कई चीजे पीछे छूट गई हैं। अब भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों के वैज्ञानिक प्रकृति के इस खजाने को संरक्षित करने में जुटे हैं। इसमें करनाल का राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो (एनबीएजीआर) भी शामिल हैं, जिसने अभी तक पंजीकृत 229 देशी नस्लों में से दो तिहाई को संरक्षित कर लिया है।जैविक विविधता को 22 मई 1992 को ब्राजील में मान्यता दी गई थी। तभी से इस दिन अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस के रूप में कई देशों में मनाया जाता है। वर्ष 2025 में इसकी थीम प्रकृति के साथ सामंजस्य एवं सतत विकास, रखी गई है। हमें प्रकृति से जो भी मिला है, वह जैविक विविधता ही है, इसे बनाए रखना बहुत आवश्यक है। एक दौर था जब किसान अपने खेतों में मक्का, कपास, ज्वार, बाजरा, दलहनी और तिलहनी फसलें उगाते थे लेकिन उस समय देश को धान और गेहूं जैसे अनाजों की भी अत्यधिक आवश्यकता थी। इन अनाजों को आयात करना पड़ता था। तब हरित क्रांति का दौर शुरू हुआ। हमारे देश के वैज्ञानिकों ने गेहूं और धान की नई किस्मों, नई तकनीकियों, प्रौद्योगिकियों पर अनुसंधान शुरू किया। किसानों को जागरूक किया। किसानों और वैज्ञानिकों की मेहनत रंग लाई और मौजूदा दौर में देश में गेहूं व धान की पर्याप्त पैदावार हो रही है, हम गेहूं व चावल निर्यात करने लगे हैं लेकिन अधिक पैदावार की इस दौड़ में बहुत कुछ पीछे छूट गया है। अब 85 प्रतिशत रकबा धान व गेहूं ने लिया है, मोटा अनाज खेतों से खत्म हो चुका है।अधिक पैदावार तो पाई पर बहुत कुछ खो दिया है : डॉ. गुरबचन सिंह- देश के पूर्व कृषि आयुक्त एवं कृषि वैज्ञानिक चयन मंडल के पूर्व अध्यक्ष डॉ.गुरुबचन सिंह ने बताया कि ऐसा नहीं है कि हरित क्रांति में गेहूं व धान की पैदावार बढ़ाकर हमने कोई गलती की, ये उस समय की आवश्यकता थी। इससे देश इन अनाजों में आत्मनिर्भर तो बना लेकिन अब हमें फिर मोटे अनाज के उस दौर में लौटने की जरूरत पड़ने लगी है, क्योंकि कृषि का जैविक विविधीकरण ठहर गया है। जमीन के अंदर जो सूक्ष्म जीव होते हैं, वह अलग अलग फसल के लिए लाभदायक होते हैं, लेकिन जब मोटे अनाज की फसल बोई नहीं गईं, जिससे उन्हें लाभ पहुंचाने वाले जीव भी मिट्टी से खत्म हो गए। अधिक पैदावार के चक्कर में अधिक कीटनाशक, खरपतवारनाशकों के उपयोग से मोटे अनाज को खाकर जीवित रहने वाले पक्षी भी विलुप्त हो गए हैं। जंगल खत्म होने से कई वनस्पतियां खत्म हो गईं, लेकिन अब पानी, जमीन और वातावरण की गुणवत्ता को ठीक करने पर ध्यान देना होगा।कहीं विलुप्त न हो जाएं, कई नस्लों को किया संरक्षित : डॉ. एनएच मोहन- राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो (एनबीएजीआर) करनाल के निदेशक डॉ.एनएच मोहन ने बताया कि जलवायु परिवर्तन के इस दौर में पशु पक्षियों की कई ऐसी नस्लें हैं, जो विलुप्त हो रही हैं। जो पशु पक्षी कभी हमारे आसपास दिखते थे, अब वह नजर नहीं आते है। प्राकृतिक सर्किल गड़बड़ा रहा है, जिससे प्राकृतिक संतुलन भी बिगड़ रहा है। एनबीएजीआर ने पिछले सालों में 229 देशी नस्लों की पहचान की है, जिसमें सीमेन फार्म में 62 और कोशिकाओं के रूप में 98 नस्लों को संरक्षित किया है, ताकि यदि ये विलुप्त भी हो जाएं और फिर इनकी जरूरत पड़े तो संरक्षित जर्मप्लाज्म से इन्हें दोबारा बनाया जा सके। ये सैकड़ो सालों से संरक्षित रहेगा।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: May 22, 2025, 02:41 IST
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